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Tuesday, December 28, 2021

राजकुमार एक डायलॉग अनेक

सनकी, अक्खड़, बेबाक और मुंहफट. ये वो विशेषण है जो एक्टर राजकुमार के लिए इस्तेमाल किए जाते थे राजकुमार अपने दौर के वो एक्टर थे, जिन्हें फिल्मों में अपनी रौबीली आवाज और दमदार डायलॉग्स के अलावा उनकी तुनकमिजाजी के लिए भी जाना जाता है
लेकिन उनका दूसरा पहलू भी था. विलेन पर हावी रहने वाले राजकुमार अपने साथी कलाकारों को भी कई बार अपनी बातों से लाजवाब कर देते थे वह बॉलीवुड के उन एक्टर्स में से थे जो असल जिंदगी में भी मजाकिया, स्पष्ट और हाजिर जवाब थे. बिना लागलपेट अपनी बात कहने वाले. फिर सामने चाहे गोविंदा हो या धर्मेन्द्र उनके साथ काम करने वाले एक्टर्स भी उनके इस अंदाज को जानते थे. यहाँ हम उनकी जिंदगी से जुड़े ऐसे ही मजेदार किस्से बताने जा रहे हैं.
(1) जंजीर फिल्म ने अमिताभ बच्चन को रातों रात स्टार बना दिया लेकिन अभिताभ डायरेक्टर प्रकाश मेहरा की पहली पसंद नहीं थे प्रकाश मेहरा राजकुमार को फिल्म में लेना चाहते थे वह स्क्रिप्ट लेकर राजकुमार के पास पहुंचे उन्हें अपनी मंशा बताई लेकिन राजकुमार के जवाब ने एक बार फिर साबित कर दिया कि उनके जैसा कोई नहीं हो सकता राजकुमार ने उनसे कहा तुम्हारे शरीर से बिजनौरी तेल की बदबू आ रही है हम फ़िल्म तो दूर तुम्हारे साथ एक मिनट और खड़ा होना बर्दाश्त नहीं कर सकते.
जाहिर सी बात है जंजीर में राजकुमार नहीं थे
(2) राजकुमार की कुछ मजेदार आदतें भी थी जैसे वो अपने साथी कलाकारों को उनके असली नाम से नहीं बुलाते थे जैसे वह धर्मेन्द्र को जितेंद्र और जितेंद्र को धर्मेंद्र कहते थे एक बार किसी ने उनसे पूछा कि राजकुमार ऐसा क्यों करते हैं इस पर राजकुमार साहब ने कहा 
राजेंद्र हो या धर्मेन्द्र या जितेंद्र या फिर बंदर क्या फर्क पड़ता है राजकुमार के लिए सब बराबर हैं.
(3)  राजकुमार के कई किस्सों में न सिर्फ एक्टर्स बल्कि उस दौर की मशहूर एक्ट्रेसेस भी शामिल है ऐसा ही एक मजेदार वाक्या 'जीनत अमान' के साथ हुआ वो भी तब जब वो टॉप एक्ट्रेसस की कटेगरी में शामिल हो चुकी थी एक फंक्शन में जीनत अमान अपनी तारीफ राजकुमार से सुनने के लिए उनके पास पहुंच गई राजकुमार ने देखते ही कहा माशाअल्लाह शक्ल-सूरत से तो बहुत सुन्दर लगती हो फिल्मों में ट्राई क्यों नहीं करती ?''
(4) सिंगर बप्पी लहरी को कौन नहीं जानता सोने के गहनों से लदा आदमी वो भी राजकुमार के ह्यूमर के शिकार हो चुके हैं हुआ ऐसा कि एक बार किसी पार्टी मेें राजकुमार और बप्पी लहरी पहली बार मिले राजकुमार ने उन्हें देख कर कहा, ''वाह, शानदार. एक से एक गहने, बस मंगलसूत्र की कमी रह गई हैं.'' और ये बात सुनकर बप्पी लहरी राजकुमार साहब को गले मिलकर हंसने लगे.
(5) गोविंदा और राजकुमार का भी एक मजेदार किस्सा हैं  दोनों फिल्म जंगबाज के सेट पर थे शूटिंग चल रही थी गोविंदा घर से जो शर्ट पहनकर आए थे उसे देखते ही राजकुमार उनकी तारीफ करने लगे गोविंदा ने कहा सर अगर आपको ये शर्ट इतनी पसंद आ रही है तो आप इसे रख लीजिये राजकुमार ने शर्ट ले ली दो दिन बाद गोविंदा ने देखा कि राजकुमार ने उनकी शर्ट का रूमाल बनवाकर अपनी जेब में रखा हुआ है.
(6) 1968 में फिल्म 'आंखें' आई थी डायरेक्टर थे रामानंद सागर और हीरो थे धर्मेंद्र लेकिन किस्सा राजकुमार से जुड़ा है डायरेक्टर राजकुमार को फिल्म में लेना चाहते थे डायरेक्ट उनके घर पहुंचे और फिल्म की कहानी सुनाई राजकुमार ने अपने पालतू कुत्ते को आवाज लगाई और उनसे पूछने लगे कि क्या वो फिल्म में काम करेगा? कुत्ते के कुछ न कहने पर राजकुमार ने रामानंद सागर से कहा ''देखा! ये रोल तो मेरा कुत्ता भी नहीं करना चाहेगा.'' रामानंद सागर वहां से चले गए और फिर दोनों ने कभी साथ काम नहीं किया.
(7) इंडस्ट्री के यही कलाकार नहीं जिन पर राजकुमार ने अपने बिना सिर पैर के बम फेंके हो इस लिस्ट में अमिताभ बच्चन भी शामिल हैं दरअसल बात उन दिनों की है जब जंजीर फिल्म हिट हो चुकी थी और अमिताभ एक पार्टी में लोगों की वाहवाही लूट रहे थे और उसी पार्टी में राजकुमार को बुलाया गया था अपने टाईम के मुताबिक राजकुमार वहां पहुंच गए और पार्टी मेें सब लोग अमिताभ के सूट की बहुत तारीफ कर रहे थे यह सुनकर राजकुमार ने अमिताभ को अपने पास बुलाया और कहा वाह तुम्हारे सूट की तो लोग बहुत तारीफ कर रहे हैं भई हमें भी बहुत पसंद आया तुम्हारा सूट यह सुनकर अमिताभ खुश हुए और उन्होंने जल्दी से उस शॉप का पता राजकुमार को दे डाला। मगर अंत में राजकुमार ने कहा मुझे अपने घर के लिए परदे सिलवाने है यह सुनकर अमिताभ मुस्कुराने लगे।।
(8) बॉलीवुड में ये तो सब मानते हैं कि राजकुमार दिल के एक दम साफ लेकिन मुंहफट इन्सान थे। एक बार की बात  हैं कि उनके पास एक प्रोड्यूसर आया जो उन्हें अपनी फिल्में मेें साइन करना चाहता था लेकिन काम के पैसे कम दे रहा था राजकुमार साहब ने पूछा फिल्म करने के कितने  पैसे दोगे प्रोड्यूसर ने कुछ पैसे बोले तो उन्होंने कहा ''इतने पैसों में तो उस गोरखे को ले जाओ।'' बताया जाता है कि राजकुमार का इशारा ''डैनी डेंजोंगपा" की ओर था।
(9) सलमान खान की फिल्म मैंने प्यार किया हिट हो जाने के बाद सूरज बड़जात्या ने पार्टी रखी थी नशे में चूर सलमान खान को सूरज बड़जात्या सबको मिलवा रहे थे इसके बाद सूरज सलमान को राजकुमार से मिलवाने ले गये जब सलमान राजकुमार से मिले तब उन्हें जानते हुए भी इग्नोर किया और पूछा कि आप कौन? यह सुनते ही राजकुमार भड़क गये और उन्होंने खड़े-खड़े ही सलमान खान की सारी हेकड़ी निकाल दी राजकुमार ने सलमान खान को झाड़ लगाते हुए कहा ''बरखुरदार" यह बात अपने पिता 'सलीम खान' से पूछना कि मैं कौन हूं?" यह सुनते ही सलमान खान का नशा चुटकियों में उतर गया जिसके बाद से सलमान खान को अपनी गलती का एहसास हुआ और जब भी वह कहीं जाते और वह बड़े अदब से राजकुमार से मिलते थे।
(10) एक किस्सा 'मेरा नाम जोकर' फिल्म बनाते वक्त भी हुआ था फिल्म मेें तीसरे रोल के लिए राजकपूर राजकुमार को लेना चाहते थे लेकिन राजकुमार ने सीधे उस रोल को करने से मना कर दिया था उनका कहना था कि वो धर्मेन्द्र और मनोज कुमार की तरह ऐसा वैसा गेस्ट रोल नहीं करना चाहते इस बात से राजकपूर चिढ़ गए दोनों में आपस में तू तू मैं मैं होने लगी बात इतनी बढ़ गई थी कि राजकुमार ने ये कह दिया कि वो उनसे काम मागने नहीं आये राजकपूर अपनी जरूरत के लिये उनके पास आये थे इससे दोनों के बीच कटुरता बढ़ गई राजकपूर ने इसका बदला लेने के लिए अपनी फिल्म के गाने "कहता हैं जोकर सारा जमाना" के लिए राजकुमार के डुप्लीकेट को कास्ट कर लिया था ।
(11) लेकिन मीना कुमारी के सामने राजकुमार की सारी हेकड़ी निकल जाती थी राजकुमार ने एक इंटरव्यू के दौरान कहा था मीनाकुमारी जब फिल्म के सेट पर मेरे साथ आती थी तो मेरी आवाज दब जाती थी मेरी आवाज़ नहीं निकलती थी उनके सामने और राजकुमार मीना कुमारी को देखकर अक्सर अपने डायलॉग भूल जाया करते थे राजकुमार ने कहा था कि मेें वो खुश नसीब इंसान हूँ। जो मीना कुमारी जैसी अदाकारा के साथ मुझे फिल्मों में काम करने का मौका मिला 
(12) आपको बता दें कि राजकुमार ने मीना कुमारी के साथ 6 फिल्मों में काम किया है जिनमें से 4 फिल्में गोल्डन जुबली सुपरहिट हैं
जैसे - #दिल_अपना_और_प्रीत_पराई-1960 #दिल_एक_मन्दिर-1963 #काजल-1963 #पाकीज़ा-1972

Monday, December 27, 2021

गीता दत्त

.                 गीता दत्त और गुरुदत्त
              का    अनकहा    अफसाना :- 

गुरु दत्त की बतौर डायरेक्टर पहली फिल्म ‘बाज़ी’ (1951) के एक गाने की रिकॉर्डिंग बंबई के महालक्ष्मी स्टूडियो में हो रही थी. गाना था “तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले”. इसे गाने आई थीं 20-21 साल की युवती गीता. वो युवती तब ही इतनी ऊंचाई पर बैठी थी कि गुरु दत जैसों का दायरा न था. गीता स्टार सिंगर थीं. तब तक कई भाषाओं में 400-500 या ज्यादा गाने गा चुकी थीं. भव्य लिमोज़ीन में घूमती थीं.

गुरु दत्त का बड़ा परिवार था. घर छोटा था. एक टेबल, एक कुर्सी थी जिस पर गुरु का सारा सृजन होता था. फाकामस्ती करते थे. वहीं गीता का पूरा नाम ही गीता घोष रॉय चौधरी था. जितना लंबा नाम उतना ही समृद्ध जमींदार परिवार. लेकिन फिर भी दोनों में प्यार हो गया था. जोरदार.

गीता की ननद ललिता लाज़मी थीं. गुरु दत्त की छोटी बहन. जो भारत की जानी-मानी आर्टिस्ट हैं. ‘रुदाली’ जैसी फिल्मों की डायरेक्टर कल्पना लाज़मी की मां. ललिता का कहना है कि गीता की खूबसूरती चकित कर देने वाली थी, ‘वो अजंता की गुफाओं में बनी पेंटिंग जैसी थी – डार्क और ब्यूटीफुल.’ वहीं गीता की बेटी नीना मेमन के मुताबिक, ‘मेरी मां बच्चों जैसी नटखट थीं. मौज में रहने वाली. उन्हें अपने दोस्तों के साथ बातें करना बहुत पसंद था. मैंने अपनी मां को कभी-कभार ही अकेले देखा. वे घर में ही रहना पसंद करती थीं. उनकी आदत थी कि वे बैठे-बैठे हारमोनियम पर हिंदी और बंगाली गाने गाती रहती थीं.’

तीन साल प्रेम के बाद दोनों ने शादी कर ली. साल था 1953. गोधूलि बेला में बंगाली रस्मों से दोनों का विवाह हुआ.इसके बाद खार इलाके में एक किराये के फ्लैट में गीता-गुरु दत्त रहने लगे. दोनों के तीन बच्चे हुए.उसके बाद दोनों के संबंध खराब हो गए. कई वजहें थीं, कौन सी कितनी सच है नहीं पता. ललिता के मुताबिक, “दोनों में ईगो को टकराव था. साथ ही गीता शायद किसी बात से आहत थी. उनकी शादी 11 साल चली लेकिन दुखद चली. दोनों ही ब्रिलियंट आर्टिस्ट थे लेकिन निरंतर दरार बढ़ती रही.

गुरु दत्त 1958 में अपनी फिल्म ‘काग़ज के फूल’ बना रहे थे. ये वो वक्त था जब उनके वहीदा रहमान से संबंधों के कारण घर में कलह चलती थी. गीता दुखी थीं. अब फिल्म की कहानी देखें. एक डायरेक्टर है जिसकी बीवी है. समृद्ध सामाजिक आर्थिक परिवार से है. दोनों के एक बच्ची है लेकिन वो पति को बच्ची से मिलने नहीं देती. एक दिन स्टूडियो में वो शूटिंग कर रहा होता है कि उसे एक युवती नजर आती है जो पहले भी मिल चुकी थी. वो कैमरा के सामने से उसे आते देखता है तो चौंक जाता है. उसमें अपनी म्यूज देखने लगता है. उससे प्रेम भी हो जाता है. लेकिन जमाना दोनों के रिश्ते को कुबूल नहीं करेगा इस सोच से वो कष्ट में रहता है. फिर फिल्म का एक अंत होता है.

अब ये पूरी कहानी, सिवा अपने अंत के, गुरु दत्त, गीता और वहीदा की कहानी है. त्रासदी देखिए कि इसी फिल्म में सारे फीमेल सॉन्ग गीता ने गाए. और यही गाने वहीदा पर फिल्माए गए. फिल्म में वहीदा का पात्र दुख से वो गाने गाता है, जिन्हें शायद उससे भी अधिक दुख के साथ गीता ने रिकॉर्डिंग स्टूडियो में गाया था.

ऐसा नहीं है कि गीता को गुरु दत्त से प्यार नहीं था. लेकिन पांच-छह साल बाद 1964 में गुरु दत्त अपने किराए के फ्लैट में मृत मिले. शराब और नींद की गोलियों के साथ उन्होंने दुनिया छोड़ दी.

●गीता इस दुख से तबाह हो चुकी थीं.

उन्होंने शराब बहुत पीनी शुरू कर दी. ठीक अपने पति की तरह. नींद की गोलियों और दूसरी ड्रग्स का सहारा भी लिया. शादी के बाद जो गाने उन्हें मिलने थे वो आशा भोसले को मिलते रहे और आशा सफल हो गईं. गुरु दत्त की मृत्यु के बाद घर चलाने के लिए गीता को फिर काम शुरू करना पड़ा. छोटी-मोटी फीस के लिए वे स्टेज शो तक में परफॉर्म करने लगीं. शोज़ और रिकॉर्डिंग में उनके खूब शराब पीकर आने के किस्से भी सुनाई देते रहे.

1971 में गीता ने ‘अनुभव’ फिल्म में गाने गाए. जीवन में इतने तनाव और दुख को दौर में भी उन्होंने इसमें ‘मुझे जां न कहो मेरी जां’ और ‘कोई चुपके से आके’ जैसे गीत गाए जो आज भी यादगार हैं. अगले साल लिवर की बीमारी से गीता दत्त चली गईं. रेडियो पर उनके मरने की खबर उनके गाए गीत के साथ सुनाई गई – ‘याद करोगे एक दिन हमको याद करोगे’.

●वे सिर्फ 42 साल की थीं.

  एक महान अभिनेता , निर्देशक, तो दुसरी बेहतरीन गायिका पर दोनों का वैवाहिक जीवन का अन्त अत्यंत दुःखद रहा . गीता दत्त जी का गाया गीत "वक्त ने किया क्या हंसी सितम तुम रहे न तुम हम रहे न हम " उनकी जिंदगी पर सटीक बैठता है।

 साल 1959 में रिलीज फ़िल्म "कागज के फूल" का यह गाना आज भी क्लासिक माना जाता है।  जिसे लिखा है कैफ़ी आज़मी ने, संगीत से संवारा है एसडी बर्मन ने और आवाज है गीता दत्त की.....

वक़्त ने किया, क्या हसीं सितम
तुम रहे न तुम, हम रहे न हम

बेक़रार दिल इस तरह मिले
जिस तरह कभी हम जुदा न थे
तुम भी खो गए, हम भी खो गए
एक राह पर, चल के दो क़दम
वक़्त ने किया...

उलझन

ओल्ड एज गोल्ड...1975...उलझन...पारिवारिक थ्रिलर सस्पेंस फ़िल्म...जिसने ज़बरदस्त सफलता प्राप्त की थी बिना मारधाड़ की फ़िल्म इतनी बड़ी थ्रिलर सस्पेंस हो सकती है ये विषय चौकाने वाला था...इस फ़िल्म की दूसरी खासियत थी फ़िल्म शुरुआत से ही मुद्दे पर आ जाती है इस पर भी फ़िल्म 3 घण्टे की लाजवाब थी, 
तीसरी खासियत थी चुस्त निर्देशन।
चौथी खासियत थी फ़िल्म के गाने और बैकग्राउंड संगीत।।।।
फ़िल्म की कहानी सारांशतः ये थी शादी के रात ननद की इज्जत की खातिर दुल्हन अनजाने में खून कर बैठती है पर कत्ल का गवाह सब जानता है अंत मे अदालत में गवाही देकर दुल्हन को और उसके परिवार की इज्जत को बचा लेता है।
इस मामूली कहानी को गज़ब के तरीके से प्रस्तुत किया था मशहूर निर्देशक रघुनाथ झालानी(सिन्धी) ने कहना न होगा 3 घण्टे की फ़िल्म सीट से उठने की इजाज़त नही देती..अकल्पनीय थ्रिलर...फ़िल्म में कल्याणजी आनन्दजी ने जोरदार संगीत दिया था मुझे आजीवन दुख रहेगा इस महान संगीतकार को सही योग्य स्थान नही मिला।
संजीवकुमार, सुलक्षणा पंडित, असरानी, पिचू कपूर, अशोककुमार, उर्मिला भट्ट, फरीदा जलाल, अरुणा ईरानी, आगा, विजु खोटे, अमृत पटेल, शिवराज, मास्टर राजु,रणजीत, इत्यादि द्वारा अभिनीत फिल्म में सभी का काम बेमिसाल था पर उलझन की कशमकश में पुलिस की भूमिका में संजीव कुमार कमाल किया था इस फ़िल्म के लिए उन्हें बेस्ट अदाकार के लिए नामिटेड किया गया था।
असरानी ने बेमिसाल विपरीत भूमिका दोस्त की की थी फ़िल्म के जानदार संवाद असरानी के खाते में आये थे।
ये फ़िल्म 1952 की कंगन की नकल थी जिसे पूरी अक्ल से बनाया गया था कंगन में अशोककुमार थे इस फ़िल्म में भी वकील की शानदार भूमिका की थी हैरत की बात ये दोनों ही फ़िल्म सुपर हिट हुई थी।
कुल जमा बात ये थी जिस फ़िल्म को अच्छा बनना होता है उस फिल्म का हर पक्ष मजबूत अपने आप हो जाता है।
1975 का साल मेने पहले भी लिखा है फ़िल्म इतिहास का श्रवन काल था इस साल अधिकांश फिल्में हिट हुई थी इसी साल.... शोले, चुपके चुपके, प्रतिज्ञा, दीवार, काला सोना, धर्मात्मा, जय संतोषी माँ, सन्यासी, अपने रँग हजार, उम्र कैद, ज़ख़्मी, दो जासूस, जुली, अंधेरा, जान हाजिर है, शैतान, फरार, दूसरी सीता, मिली, आंदोलन, राजा, ज़िंदा दिल, इत्यादि फिल्मों की धूम थी।
ये फ़िल्म रायपुर की बाबूलाल में 12 हफ्ते, गोंदिया की राजलक्ष्मी में 5 हफ्ते, नागपुर की वैरायटी और जयश्री में संयुक्त 34 हफ्ते, मुम्बई(तब बॉम्बे) की शालीमार में 48 हफ्ते चली थी।
इसी फिल्म को बाद में तेलगु, तमिल, बंगाली, मराठी में बनाया गया जो हिट साबित हुई थी।
इस फ़िल्म को श्रृंगार फिल्स अमरावती द्वारा वितरित किया गया था जो नफ़े का सौदा बनी, ये सुलक्षणा पंडित की पहली फ़िल्म थी आज 45 साल के बाद भी फ़िल्म ताज़गी लिए हुए है कभी समय निकालकर इस थिरलर सस्पेंस फ़िल्म को जरूर देखें मन मे उमंग आ जायेगी...
क्या आप जानते है:::::::;; इस फ़िल्म के निर्माता सुदेशकुमार एक ज़माने में हिंदी फिल्मों में सहायक भूमिकाएं करते थे हीरो की भूमिका(सारंगा) भी की थी उनकी पहली हिन्दी फ़िल्म थी ..गुलाम बेगम बादशाह(1973) और आखरी फ़िल्म थी जान हथेली पे(1988) उन्होंने बदलते रिश्ते भी बनाई थी जो 1977 में बनी थी उनकी सारी फिल्मों के निर्देशक थे....रघुनाथ झालानी सारी फिल्में सुपर हिट हुई थी अकल्पनीय धन कमाने के बाद उन्होंने फिल्म दुनिया छोड़कर सन्यासी का जीवन जिया।
सुलक्षणा पंडित को इस फ़िल्म के बाद 11 फिल्में मिली पर सफलता नही इसी फिल्म के दौरान उनका संजीव कुमार के साथ रोमान्स शुरू हुआ जो संजीव कुमार की मृत्यु तक चला और सुलक्षणा पण्डित ने आजीवन शादी नही की।।
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फ़िल्म पहला पहला

भारत में बनी पहली फिल्म 1913 में रिलीज़ हुई थी। तब से 100 साल से अधिक समय बीत चुका है और भारतीय सिनेमा ने कई मील के पत्थर पार कर लिए हैं, जो कल्पना करना असंभव था जब दुनिया के हमारे हिस्से में मोशन पिक्चर्स पेश किए गए थे।

 हमारे शुरुआती फिल्मों पर..

1. राजा हरिश्चंद्र (1913) - पहली भारतीय फिल्म - मराठी

इस फिल्म ने भारतीय फिल्म उद्योग में एक ऐतिहासिक बेंचमार्क चिह्नित किया। फिल्म का केवल एक प्रिंट बनाया गया था और कोरोनेशन सिनेमैटोग्राफ में दिखाया गया था। यह फ़िल्म व्यावसायिक रूप से सफल रही और आज के भारतीय सिनेमा को सफलताकी दिशा दिखाई।

2. आलम आरा (1931) - बोलनेवाली पहली फ़िल्म

सिनेमा को आवाज़ देने वाली यह फिल्म एक बूढ़े राजा और उसकी दो प्रतिद्वंद्वी रानियों के बारे में एक परिकल्पित फ़िल्म थी। फिल्म को बुरे रिकॉर्डिंग स्थितियों और परियोजना की गोपनीयता के कारण बनाने में महीनों लग गए।

3. किसान कन्या (1937) - भारत की पहली रंगीन फिल्म

किसान कन्या 1937 की हिंदी रंगीत फीचर फिल्म थी, जो मोती बी गिडवानी द्वारा निर्देशित और इंपीरियल पिक्चर्स के अर्देशिर ईरानी द्वारा निर्मित की गई थी। इस फिल्म ने एक किसान की गरीब दुर्दशा और किसान होने के परिणाम पर प्रकाश डाला था। फिल्म को व्यावसायिक सफलता तो नहीं मिली, लेकिन देश की पहली रंगीन फिल्म होने के लिए याद की जाती है।

4. धूप छाँव (1935) - पहला पार्श्व गीत

भारतीय सिनेमा के सबसे महत्वपूर्ण घटनाक्रमों में से एक है, पार्श्वगायन। राय चंद बोरल ने फिल्म धूप छाँव में पार्श्व गायन की तकनीक का उपयोग किया था। इससे पहले, अभिनेता सेट पर लाइव गाते थे और यह संवादों की तरह ही रिकॉर्ड किया गया था।

5. अपराधी (1931) - कृत्रिम रोशनी के साथ चित्रित की गई पहली भारतीय फिल्म
भारतीय सिनेमा में सबसे प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों में से एक, पी सी बरुआ को फिल्मांकन के दौरान कृत्रिम रोशनी का उपयोग करने के लिए भी जाना जाता है। उन्होंने लंदन के स्टूडियो में उत्पादन तकनीकों का अवलोकन किया और स्टूडियो में उपयोग होने वाले प्रकाश उपकरणों को खरीदा। देबकी बोस द्वारा निर्देशित उनके स्टूडियो की की पहली फिल्म अपराधी कृत्रिम रोशनी का उपयोग करके बनाई गई थी
इसके अलावा कुछ फिल्में थी, जिन्होंने कुछ ना कुछ रिकॉर्ड बनाया, जैसे..

फ़िल्म लंका दहन (1917), मराठी, पहली फ़िल्म जिसमे एक ही अभिनेता ने दो भूमिकाएं निभाई थी।

फ़िल्म भक्त विदुर (1921), पहली फ़िल्म जिसपर शासन द्वारा पाबंदी लगाई गई थी,

फ़िल्म मार्तण्ड वर्म (1933), दूसरी मलयाली फ़िल्म और पहली भारतीय फिल्म जिसमे पहली बार चुम्बन दृश्य फिल्माया गया,

फ़िल्म रूपलेखा (1934), जहाँ पहली बार 'फ़्लैश बैक' दिखाया गया,

फ़िल्म सीता (1934), अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में सम्मान पानेवाली पहली फ़िल्म,

फ़िल्म नौजवान (1937), पहली फ़िल्म, एक भी गाने बगैर,

फ़िल्म किस्मत (1943), बुरे इंसान को मुख्य भूमिका में दिखानेवाली पहली फिल्म,

फ़िल्म नीचा नगर (1946), कान्स फ़िल्म समारोह में सम्मान पानेवाली पहली फ़िल्म,

फ़िल्म आवारा (1951), पहला ड्रीम सिक्वेंस गीत(घर आया मेरा परदेसी..)

फ़िल्म हँसते आँसू (1951), पहली बार 'ए' प्रमाणपत्र के साथ,

फ़िल्म संगम (1964) विदेशों में चित्रित पहली फ़िल्म,

फ़िल्म यादें (1964), एक ही अभिनेता से अभिनीत पहली फ़िल्म,

#भूलेबिसरेनगमे

Friday, December 24, 2021

बुढापा पैरों से शुरु होता है*

*बुढापा पैरों से शुरु होता है*
मुझे आज उपरोक्त संदर्भ में एक समझने लायक लेख मिला। मैं तो रोज कम से कम 45 मिनट लगातार पैदल चलता हूं जो मेरे ब्लड शुगर लेवल को नियंत्रित रखने में मदद करता है व यही सीनियर सिटीजन्स हेतु सबसे अच्छी एक्सरसाइज है। इस लेख में पैदल चलने के और भी फायदे बताए हैं। मैं पैरों के नर्व्स और वेंस के लिए स्ट्रेच एक्सरसाइज़ में अलाली कर लेता था, जो अब से नही करूँगा। क्योंकि पिंडली को कुछ लोग उसमें पाए जाने वाले नर्व्स और वेंस के कारण उसे छोटा दिल जो कहते हैं। शायद ये लेख आपको भी अच्छा लगे।

*बुढ़ापा पैरों से शुरू होकर ऊपर की ओर बढ़ता है !  अपने पैरों को सक्रिय और मजबूत रखें !!*

जैसे-जैसे हम ढलते जाते हैं और रोजाना बूढ़े होते जाते हैं, हमें पैरों को हमेशा सक्रिय और मजबूत बनाए रखना चाहिए।

 हम लगातार बूढ़े हो रहे हैं, वृद्ध हो रहे हैं, मगर हमें  बालों के भूरे होने, त्वचा के झड़ने (या) झुर्रियों से डरना नहीं चाहिए।

दीर्घायु के संकेतों में, जैसा कि अमेरिकी पत्रिका प्रिवेंशन (रोकथाम) में मजबूत पैर की मांसपेशियों को शीर्ष पर सूचीबद्ध किया गया है, क्योंकि यह सबसे महत्वपूर्ण और आवश्यक है।

यदि आप दो सप्ताह तक अपने पैर नहीं हिलाते हैं, तो आपके पैरों की ताकत 10 साल कम हो जाएगी। यानी आप दस साल बूढ़े हो जाएंगे।

डेनमार्क में कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में पाया गया कि वृद्ध और युवा दोनों, *निष्क्रियता* के दो हफ्तों के दौरान, पैरों की मांसपेशियों की ताकत *एक तिहाई  कम हो सकती है जो 20 से 30 साल की उम्र के बराबर है।*

जैसे-जैसे हमारे पैर की मांसपेशियां कमजोर होती जाती हैं, ठीक होने में लंबा समय लगता है, भले ही हम बाद में पुनर्वास और व्यायाम करें।

इसलिए, *चलने जैसे नियमित व्यायाम बहुत जरूरी हैं*।

पूरे शरीर का भार पैरों पर रहता है और शरीर आराम करता है। पैर एक प्रकार के स्तंभ हैं, जो मानव शरीर के पूरे भार का वहन करते हैं।

दिलचस्प बात यह है कि किसी व्यक्ति की 50% हड्डियाँ और 50% मांसपेशियाँ दोनों पैरों में ही होती हैं। मानव शरीर के सबसे बड़े और मजबूत जोड़ और हड्डियां भी पैरों में होती हैं।

 ▪️मजबूत हड्डियां, मजबूत मांसपेशियां और लचीले जोड़ "आयरन ट्राएंगल" का निर्माण करते हैं जो सबसे महत्वपूर्ण भार यानी *मानव शरीर को वहन करता है।*

 ७०% मानव गतिविधियां और कैलोरी बर्निंग इन्हीं दो पैरों से होते हैं। 

क्या आप यह जानते हैं?  जब इंसान जवान होता है तो उसकी *जांघों में इतनी ताकत होती है कि वह 800 किलो की छोटी कार को उठा सके।*

  *पैर शरीर की हरकत का केंद्र है*।

दोनों पैरों में मिलकर मानव शरीर की ५०% नसें, ५०% रक्त वाहिकाएं और ५०% रक्त उनमें से बहता है।

 ▪️ यह सबसे बड़ा संचार नेटवर्क है जो शरीर को जोड़ता है।

केवल जब पैर स्वस्थ होते हैं तब रक्त की कन्वेंशन धारा सुचारू रूप से प्रवाहित होती है, इसलिए जिन लोगों के पैर की मांसपेशियां मजबूत होती हैं, उनका हृदय निश्चित रूप से मजबूत होता है।

*बुढ़ापा पैरों से ऊपर की ओर जाता है।*

जैसे-जैसे व्यक्ति बूढ़ा होता है, मस्तिष्क और पैरों के बीच निर्देशों के संचरण की सटीकता और गति कम होती जाती है, इसके विपरीत जब कोई व्यक्ति युवा होता है तो यह बहुत तेज और सटीक होती है।

 इसके अलावा, तथाकथित अस्थि उर्वरक (कैल्शियम) समय बीतने के साथ खो जाएगा, जिससे बुजुर्गों को हड्डियों के फ्रैक्चर का खतरा अधिक हो जाएगा।

बुजुर्गों में अस्थि भंग आसानी से जटिलताओं की एक श्रृंखला को ट्रिगर कर सकता है, विशेष रूप से घातक रोग जैसे मस्तिष्क घनास्त्रता।

क्या आप जानते हैं कि आम तौर पर 15 फीसदी बुजुर्ग मरीजों की जांघ की हड्डी में फ्रैक्चर के एक साल के भीतर मौत हो जाती है ?

 * *पैरों की एक्सरसाइज करने में कभी देर नहीं करनी चाहिए, 60 साल की उम्र के बाद भी यदि आप नियमित व्यायाम करें तो परिणाम चौंकाने वाले होते हैं।*

 हालांकि समय के साथ हमारे पैर धीरे-धीरे बूढ़े हो जाएंगे, लेकिन हमें पैरों का व्यायाम करना जीवन भर का काम बना लेना चाहिए।

केवल पैरों को मजबूत करके ही आगे बढ़ती उम्र को रोका या कम किया जा सकता है।

 ▪️कृपया रोजाना कम से कम 30-40 मिनट टहलें ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि आपके पैरों को पर्याप्त व्यायाम मिले और यह सुनिश्चित हो सके कि आपके पैरों की मांसपेशियां स्वस्थ रहें।

यदि आप सहमत हैं तो आपको इस महत्वपूर्ण जानकारी को अपने सभी दोस्तों और परिवार के सदस्यों के साथ साझा करना चाहिए, क्योंकि हर व्यक्ति रोज बूढ़ा हो रहा है।

मस्त रहें, स्वस्थ रहें, प्रसन्न रहें और नियमित 5 km पैदल अवश्य चलें.🙏
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ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः।
सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु।
मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
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डॉ राही मासूम रज़ा

डॉ. राही मासूम रज़ा, उर्दू साहित्य का एक बड़ा नाम, एक वास्तविक विद्वान व्यक्ति जिनकी पकड़ उर्दू और हिन्दी दोनों जुबानों पर काबिले तारीफ़ रही। उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले गंगौली गांव में जन्मे राही साहब दुर्भाग्यवश बचपन में ही पोलियो ग्रस्त हो गए जिसके वजह से विद्यालय की पढ़ाई के बाद इन्हें लंबा विराम लेना पड़ा, बावजूद इसके उन्होंने परिस्थितियों से समझौता नहीं किया और अपने गृहनगर से बारहवीं पास करने के बाद भारत के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में शुमार अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दाखिला लिया और B.A.+ M.A.+PhD उर्दू साहित्य में इन्होंने इसी इसी संस्थान से पूरा किया।  PhD में इनका 'शोध-शीर्षक' "तिलिस्म-ए-होशरुबा" रहा जो जादुई कहानियों पर आधारित एक संग्रह था। कुछ वर्षों तक आपने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में शिक्षण कार्य किया तथा विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के विभागाध्यक्ष (H.O.D.) के पद पर सुशोभित रहे। अपने शिक्षण कार्य से विराम लेकर आप अपना पूरा समय साहित्य रचनाओं को समर्पित करने तथा फिल्मों के लिए कहानीकार के तौर पर काम करने के उद्देश्य से 1968 में बंबई आ गए। बंबई रहते हुए आपने अपनी सुप्रसिद्ध उपन्यास कृति "आधा-गांव" की रचना की। इसके अतिरिक्त 'दिल एक सादा कागज', 'ओस की बूंद', 'हिम्मत जौनपुरी' जैसे उपन्यासों की भी रचना की। 1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने वाले भारत के जांबाज फौजी परमवीर चक्र विजेता वीर अब्दुल हमीद की जीवनी "छोटे आदमी की बड़ी कहानी" को लिखा जिसे भारतीय पाठकों और साहित्य प्रेमियों ने खूब सराहा। सबसे मज़ेदार बात यह कि उनकी ये सभी कृतियां हिन्दी भाषा में थीं क्योंकि डॉ. राही ने कहा कि हिन्दी में होने पर देश की ज्यादा से ज्यादा आवाम इनको पढ़ सकेगी, उर्दू हर कोई नहीं समझ सकता। टोपी शुक्ला, नीम का पेड़, सीन-75 भी आपके कुछ लोकप्रिय उपन्यास रहे। इस सब के अतिरिक्त आपने उर्दू की ढेरों नज़्मों और ग़ज़लों को लिखा। आपको सर्वाधिक प्रसिद्धि हिन्दी भाषा के पौराणिक टेलीविजन धारावाहिक महाभारत (1988) के संवाद को लिखने के कारण मिली। महाभारत के संवाद से आपकी लेखनी का लोहा संपूर्ण भारत वर्ष ने माना तथा महाभारत ने रिकॉर्ड 86% टेलीविजन रेटिंग अर्जित किया। आपने फिल्म 'मैं तुलसी तेरे आंगन की' के लिए Best Screenplay Writer का Filmfare पुरस्कार पाया

Monday, December 20, 2021

जब नादिरा की रज़ाई में घुस गए थे मुकरी

जब नादिरा की रज़ाई में घुस गए थे मुकरी
✍️ जावेद शाह खजराना (लेखक)

सारे भारत में कड़ाके की ठंड पड़ रही है।
रज़ाई में घुसते हुए मुझे एक मज़ेदार किस्सा याद आ गया

सन 1950 की बात है।
हुआ यूँ की फ़िल्म डॉयरेक्टर #महबूब_खान साहब इंदौर में अपनी फिल्म की शूटिंग कर रहे थे, फिल्म का नाम था , #आन …

फ़िल्म की पूरी यूनिट #लैंटर्न होटल #यशवंत_निवास रोड़ पर रुकी हुई थी …सभी को अलग-अलग कमरे दिए गए थे …

मगर कॉमेडियन #मुकरी साहब ने ये कह दिया किया,
कि उनके रूम का सामान उनके दोस्त दिलीप कुमार के कमरे में रख देना वो उनके साथ ही रूम शेयर करेंगे।

अब हुआ यूँ की पहले दिन शूटिंग का पैक अप देर रात हुआ ।

सर्दियों का मौसम था ।
शबे #मालवा तो वैसे भी मशहूर है और आजकल की ठंड उस वक्त के हिसाब से रत्तीभर भी नहीं। सारा #इंदौर कोहरे की चादर ओढ़े हुए था।

मुकरी साहब भूल गए की उनका सामान #दिलीप_कुमार के रूम में रखा है ।

जब मुकरी साहब अपने कमरे में गए तो उनके कमरे में रजाई वगैरह नहीं थी,

अब भरी सर्दी में बिना रजाई के सोना मुश्किल था तब वो दिलीप कुमार के कमरे में सोने चल दिए…

जब वो दिलीप कुमार का कमरा ढूंढ रहे थे तब होटल में लाइट नहीं थी।

इसलिए उन्हें अँधेरे में कुछ समझ में नहीं आया, एक कमरे का दरवाज़ा खुला हुआ था,

वो उसे दिलीप कुमार का कमरा समझ कर घुस गए…

अँधेरे की वजह से उन्हें ये भी पता नहीं चला की बिस्तर पे कौन सो रहा है सो वो सीधे रजाई में घुस गए…🤣

उनके घुसते ही शोर मच गया… 
चिख-पुकार शुरू हो गयी …

क्यूंकि मुकरी जिस रजाई में घुसे थे वो दिलीप कुमार की नहीं बल्कि नई नवेली एक्ट्रेस #नादिरा की रजाई थी…

18 साल की नादिरा यूँ अँधेरे में मुकरी को उनके कमरे और रजाई में देख घबरा गयी…
सब तरफ शोर मच गया…🤣 
मुकरी साहब ने बात को सँभालते हुए फटाफट नादिरा से माफ़ी मांगी…🤤

और गलती होने की वजह बताई और वहा से भाग कर सीधे दिलीप कुमार की रजाई में आ गए…😘

बात यही ख़त्म नहीं हुई … अगले दिन नादिरा ने मुकरी की शिकायत महबूब साहब से कर दी …

उन दिनों ऐसी अफवाह थी की महबूब का चक्कर नादिरा से चल रहा है, हक़ीक़त #अल्लाह जाने।

इसलिए ये सब सुनकर महबूब खान की पत्नी फ़िल्म एक्ट्रेस #सरदार_अख़्तर परेशान हो गयी की इतनी रात को नादिरा ने अपना दरवाज़ा खुला क्यूँ रखा था?

कही ये दरवाज़ा महबूब खान के लिए तो नही खुला था ।
जिसमे गलती से मुकरी घुस गए थे…

बहरहाल… उस दिन मुकरी की तो क्लास लगी सो लगी मगर मुकरी के चक्कर में मिसेस महबूब खान ने भी महबूब साहब की क्लास भी लगा डाली…

नादिरा और उनके रिश्तों को लेकर उनकी भी अच्छी~खासी लेफ्ट राईट हो गयी… (दिलीप साहब)

नादिरा और महबूब साहब दोनों मुकरी से बहुत नाराज हुए , इधर दिलीप कुमार ने भी मुकरी को समझाया की इस तरह की बेवकूफियां अब दुबारा ना करे…

मुकरी बेचारे तो ठण्ड के मारे नादिरा की #रजाई में घुस गए , ये बात समझ में आती है ,
मगर नादिरा किसके लिए दरवाज़ा खोलकर सो रही थी …?

ये आज तक समझ में नहीं आया… 
ये राज़ आज भी राज़ बना हुआ है| 💖

ये राज जानने वाले मेहबूब साहब , नादिरा , मुकरी , दिलीप कुमार , #निम्मी , सरदार अख़्तर , फरीदून ईरानी वगैरह कोई भी इस दुनियाए फानी में नहीं है 😭
लिहाजा ये किस्सा तो सही है कि मुकरी साहब गलती से ही सही नादिरा की रज़ाई में घुसे तो जरूर थे। 🤣🤣🤣🤣
9340949476
#javedshahkhajrana

Saturday, December 18, 2021

एक रुका हुआ फैसला मूवी गाथा

" एक रूका हुआ फैसला (1986) " अमेरिकन फिल्म ' 12 Angry Men (1957) ' का हिंदी रूपांतरण जिसका निर्देशन किया आर्ट फिल्मों के जाने माने निर्देशक बासु चटर्जी जी ने ।
जहाँ बालीवुड फिल्मों के 4-5 मिनट के एक गाने में 36 लोकेशन्स और 10-15 ड्रेसेस बदले जाते हैं वहीं ये 2 घंटे की पूरी फिल्म एक छोटे से कमरे में शूट की गई और सिर्फ 12 पुरूष कलाकारों को लेकर । लेकिन फिर भी ये फिल्म 1 सेकण्ड के लिए भी बोरिंग नहीं लगती । कहानी शुरू होती है एक लड़के के मुकदमे से जिस पर अपने पिता के कत्ल का इल्जाम है लेकिन अदालत किसी फैसले पर नहीं पहुँच पाती है इसलिए 12 सदस्यों की एक टीम बनाई जाती है जिनको इस मुकदमे में पेश किये गये सबूतों और गवाहों पर बारीकी से जाँच करने के लिए कहा जाता है और ये भी कहा जाता है कि चाहे ये टीम लड़के दोषी साबित करे या निर्दोष सभी 12 सदस्यों का एकमत होना आवश्यक है । मुकदमे पर बहस करते वक्त लड़के को दोषी ठहराने के लिए कुछ सदस्यों द्वारा ऐसे तर्क दिये जाते हैं जो उनके शिक्षित और सभ्य होने पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है मसलन कोई लड़के को इसलिए दोषी मानता है कि वो निचले तबके से आता है तो कोई इसलिए दोषी मानता है क्योंकि उनका बेटा उनको छोड़ कर भाग जाता है । अंत में लड़का निर्दोष साबित होता है लेकिन बहस में सदस्यों द्वारा जिस तरह का तर्क दिया जाता है और व्यवहार किया जाता है वो हैरानी में डालता है ।

Sunday, December 12, 2021

बाण भट्ट की आत्मकथा

हजारी प्रसाद द्विवेदी एक ऐतिहासिक उपन्यासकार के रूप में ही जाने जाते हैं। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ उपन्यास हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित पहला ऐतिहासिक उपन्यास है। इस उपन्यास का प्रकाशन 1946 में हुआ था। यह उपन्यास हर्षकालीन सभ्यता एवं संस्कृति का जीता जागता दस्तावेज है। यह उपन्यास इतिहास और कल्पना का बहुत ही सुंदर समन्वय है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह दोनों एक दूसरे के पूरक हो। इस उपन्यास का संबंध संस्कृत के प्रसिद्ध कवि बाणभट्ट से है। इस उपन्यास में सातवीं शताब्दी के हर्ष युग के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्थिति के ऐतिहासिक तत्वों पर प्रकाश डाला गया है। 

इस उपन्यास में प्रमुख तीन पात्र हैं- बाणभट्ट, भट्टिनी तथा निपुणिका, राज्यश्री, कुमार वर्धन, सुचरिता। यह सभी पात्र कथानक के विकास में अहम भूमिका निभाते हुए जान पड़ते हैं। इसके साथ ही इसमें काल्पनिक पात्र भी हैं।

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने प्राचीन कवि बाणभट्ट के जीवन को बहुत ही कलात्मकता से गूँथ कर एक ऐसी कथाभूमि निर्मित की है जो जीवन सत्यों से रसमय साक्षात्कार कराती है। द्विवेदी जी ने इस उपन्यास की रचना मध्यकालीन इतिहास के एक छोटे से कालखंड को आधार बनाकर की है। इस उपन्यास में सातवीं शताब्दी का इतिहास और समाज का जीवंत चित्रण प्रस्तुत हुआ है। इस उपन्यास की केंद्रीय समस्या बाणकालीन राजवंशीय इतिहास को प्रस्तुत करने की नहीं है, बल्कि मुख्य समस्या है भट्टिनी(प्रभावशाली चरित्र)की रक्षा करना। जो भट्टिनी नारी की गरिमा, उदारता, समस्त भारतीयता और अपने समाज की आस्था का प्रतीक है। नारी सम्मान की रक्षा का भाव इस उपन्यास का मूल केंद्र है। “हजारी प्रसाद द्विवेदी में कारयित्री प्रतिभा के कारण ही उच्च कोटि के भावयित्री प्रतिभा भी है।” यहां द्विवेदी जी के संबंध में डॉ.हरदयाल का यह कथन बिल्कुल उचित जान पड़ता है। ” 

‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ ऐतिहासिक उपन्यास के दायित्व को निबाहने में पूर्णता समर्थ है।”

द्विवेदी जी जिस समय यह उपन्यास लिख रहे थे उस समय उपनिवेशवाद से भारत को हर तरह से मुक्त करने की कोशिश की जा रही थी। द्विवेदी जी द्वारा उपन्यास के भारतीय रूप की तलाश उपनिवेशवाद से मुक्ति की एक कोशिश ही है। “उपन्यास के नाम से ही ज्ञात है कि वह बाणभट्ट की आत्मकथा है पर वास्तव में बाणभट्ट की कथा नहीं है, उसके समय की आत्मकथा है। बाणभट्ट आत्मरति प्रधान पात्रों की तरह अपने में डूबकर केवल अपने समय के तथ्यों की या अपनी आंतरिक दुनिया की कहानी नहीं कहता है। वह तो अपने समय की और उसके माध्यम से शोषक समाज से संघर्ष करते अभिशप्त लोगों की कहानी कहता है।”

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ की ऐतिहासिकता के बारे में लिखा है कि “इतिहास की दृष्टि से छोटी-मोटी असंगतियां चाहे निकल आए पर अधिकांश में उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री से कथा की सामग्री का विरोध नहीं है।” इस उपन्यास में पात्रों के माध्यम से भी ऐतिहासिकता को जाना और समझा जा सकता है, जैसे- कृष्णवर्धन, ग्रह वर्मा, राज्यश्री, महाराजा हर्षवर्धन, धावक जैसे कुछ ऐसे पात्र हैं जिन्हें इतिहास के क्षेत्र में जाना जाता है। इस उपन्यास का नायक भी एक ऐतिहासिक व्यक्ति है। इस उपन्यास में सभी स्थान ऐतिहासिक है पर घटनाएं काल्पनिक ही हैं। “उपन्यास को लिखने के लिए लेखक को स्वयं बाणभट्ट बनना पड़ा है। इसमें लेखक को बेजोड़ सफलता मिली है।”

द्विवेदी जी ने अपने उपन्यास के बारे में लिखा है कि “दो साल तक यह कथा यों ही पड़ी रही। एक दिन मैंने सोचा कि बाणभट्ट के ग्रंथों से मिलाकर देखा जाए कि कथा कितनी प्रमाणित है। कथा में ऐसी बहुत सी बातें थी जो उन पुस्तकों में नहीं है। इनके लिए मैंने समसामयिक पुस्तकों का आश्रय लिया और एक तरह से कथा को नए सिरे से संपादित किया।” यहां द्विवेदी जी ने इतिहास से प्राप्त हर्षकालीन स्थूल आंकड़ों को आधार न बना कर तत्कालीन साहित्य में चित्रित सत्यों को आधार बनाया है। इन्हीं सामग्री को मिलाकर द्विवेदी जी ने एक सुंदर कहानी प्रस्तुत की है। इसी विषय में बच्चन सिंह का कहना है कि “पूर्व कालीन उत्तरभारत का इससे ज्यादा प्रामाणिक इतिहास दूसरा नहीं है।”

यह उपन्यास आत्मकथात्मक शैली में लिखा हुआ ऐतिहासिक रोमांच है। इसमें नारी को वर्ण विषय बनाया गया है। तत्कालीन आर्यावर्त की प्रभुतावादी सामंती व्यवस्था में नारी की स्थिति भोग्या से अधिक और कुछ भी नहीं थी। उसे एक वस्तु के रूप में ही देखा जाता था। निपुणिका पर समाज के अनैतिक संबंधों का आरोप लगा और भट्टिनी देवी होकर भी अंत:पुर में आबद्ध है। वहीं सुचरिता गृहस्थ जीवन का त्याग कर वैराग्य धारण करना चाहती है। 

इस ऐतिहासिक उपन्यास को लिखने का उद्देश्य द्विवेदी जी का सिर्फ बाणभट्ट के जीवन का विवरण देना नहीं था बल्कि बाणकालीन भारत, गुप्त काल, कलात्मक और धार्मिक इतिहास से लोगों को रूबरू कराना भी था। द्वितीय उच्छवास में महावराह की मूर्ति का परिचय देने के बहाने द्विवेदी जी ने मध्यकालीन मूर्तिकला का विवेचन किया है। तो सातवें उच्छवास में चित्रकला, नृत्यकला, शिल्पकला, स्थापत्य कला का वर्णन हुआ है। आठवें उच्छवास में काव्य-विमर्श को देखा जा सकता है। इतिहास की दृष्टि से सामंतों, राजाओं के अंतःपुरों का वर्णन भी है। आगे मध्यकालीन धर्म-साधना पर भी इस उपन्यास में प्रकाश डाला गया है। ब्राम्हण और बौद्ध धर्म का विवेचन भी हुआ है तथा वैष्णव,तांत्रिक, यथास्थान शैव, वाम मार्ग आदि जन समूहों की साधना पद्धतियों और उनके मध्य संघर्षों का परिचय भी हमें बखूबी देखने को मिलता है।

अतः निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने उपन्यास बाणभट्ट की आत्मकथा को ऐतिहासिक उपन्यास की परंपरा में खड़ा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। पात्र की दृष्टि से हो या स्थान की दृष्टि से या शिल्प या भाषा शैली की दृष्टि से हो इन सभी के माध्यम से द्विवेदी जी ने अपनी विलक्षण प्रतिभा की पहचान दी है। द्विवेदी जी अपने इस उपन्यास के माध्यम से यह भी संदेश देना चाहते हैं कि नारी की गरिमा को समझो, नारी के प्रति सम्मान भाव रखो, नारी को मात्र भोग की वस्तु न समझो, उसके प्रति पवित्र एवं उदार भाव रखो।

Saturday, December 11, 2021

लीला मिश्रा

“ लीला मिश्रा ”

जिस ठौर बैठे, महफ़िल सी हुई, वीरान सा लगे उठ जाए है जहाँ से, सब हंसे तो मासूम चेहरा लिए सबको हैरत से देखे और जब हैरत में पड़े हो सब, तो ख़ूब हंसे। न डर, न दिखावा, न तकल्लुफ़, न छलावा और बेबाक़ी ऐसी कि शहंशाह से भी बेअदबी कर बैठे, रहम इतना कि सबके दर्द पे रो ले। ऐसी बातें किसी फ़कीराना मिज़ाज शख़्स के बारे में लगती हैं, लेकिन ये बातें एक रईस ख़ानदान की उस औरत के बारे में है, जिसे एक दौर में, सारा हिन्दुस्तान, मौसी कह कर बुलाता था, वैसे उनका नाम था, लीला मिश्रा।

लीला मिश्रा, 1908 में उत्तर प्रदेश के रायबरेली में, एक बेहद अमीर, ज़मींदार ब्राह्मण परिवार में पैदा हुईं। इनकी तरबियत ऐसे माहौल में हुई जहाँ इनके मिज़ाज में राजसी ठसक भी थी और आला दर्ज़े के ब्राह्मण-संस्कार भी। इनकी ज़िंदगी का एक अरसा बनारस में भी गुज़रा और ये तो सब जानते हैं कि बनारस किसी का नहीं होता, सब बनारस के हो जाते हैं, तो इनके बारे में भी कई बार ये कहा जाता है कि ये बनारस की थीं। वो दौर महिलाओं के लिए बहुत अच्छा न था, सो लीला मिश्रा भी स्कूल न गईं और महज़ 12 साल की उम्र में इनकी शादी राम प्रसाद मिश्रा जी से हो गई।

राम प्रसाद मिश्रा एक आज़ाद ख़याल इंसान थे और वे भी ज़मींदार ख़ानदान से ही थे। इन्हें ऐक्टिंग का शौक़ था और मुंबई में नाटक भी किया करते थे। वहाँ, मामा शिंदे, जो फाल्के साहब के सहायक थे, इनके मित्र थे। जब राम प्रसाद मिश्रा, अपनी पत्नी लीला मिश्रा के साथ मुंबई रहने लगे, तो मामा शिंदे का उनके यहाँ, अकसर आना जाना होता था। एक बार मामा शिंदे ने कहा कि मिश्रा दम्पति, फ़िल्मों में क्यों नहीं काम करते। पहले तो राम प्रसाद मिश्रा जी ने मना किया, लेकिन फिर मान गए। वो ऐसा दौर था, जहाँ मर्द ही औरत बन कर फ़िल्मों में काम करते थे ज़्यादातर। जब ये दोनों तैयार हुए तो राम प्रसाद मिश्रा जी को 150 रुपये और लीला मिश्रा जी को 500 रुपये देने का क़रार हुआ। लेकिन दोनों ने कैमरे के सामने बेहद ख़राब ऐक्टिंग की और ये मौक़ा जाता रहा। ये 1920 के दशक की बात है।

“1926 में फ़िल्म “होनहार” में, शाहू मोदक, नायक थे और लीला मिश्रा, नायिका। एक सीन में इन्हें शाहू मोदक को पकड़ के कहना था कि, ” मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती।” लीला मिश्रा, भड़क गईं और साफ़ मना कर दिया कि अपने पति के अलावा, वे किसी और से, ऐसा व्यवहार नहीं कर सकतीं। क़ानूनी तौर पर इनका क़रार इस तरीके का था फ़िल्म कंपनी के साथ कि वे इन्हें फ़िल्म से हटा नहीं सकते थे, सो उन्होंने, लीला मिश्रा को नायक की मां का किरदार दे दिया और ये ज़बरदस्त कामयाब किरदार रहा। इसके बाद लीला मिश्रा ने पूरी ज़िंदगी में 200 से ज़्यादा फ़िल्में की और हमेशा, दादी, नानी, चाची, मौसी के ही किरदार में ही नज़र आईं। “

“चित्रलेखा” से लेकर “प्यासा” तक और “कॉलेज गर्ल” से लेकर “मंझली दीदी” तक हर बार लीला मिश्रा ने अपने ज़बरदस्त अभिनय की छाप छोड़ी। इनको सबसे ज़्यादा शोहरत मिली, फ़िल्म, “शोले” से, जो 1975 में आई।

1979 में आई, बासु चटर्जी की फ़िल्म, “बातों बातों में” इनका अभिनय देखकर और बाकी फ़िल्मों में भी इनकी अदायगी से प्रभावित होकर, सत्यजीत रे ने इनसे कहा कि वे उनकी फ़िल्मों में काम करें। लीला मिश्रा ने उनसे कहा कि “काम तो करूंगी, लेकिन मुंबई आ कर फ़िल्में बनाओ, मैं कलकत्ते नहीं जाऊंगी।”

लीला मिश्रा खाने पीने की बहुत शौक़ीन थीं और ख़ूब हंसते गाते,  खाते पीते 1988 में वे इस दुनिया से चली गईं। आज भी जब कभी किसी सीन में लीला मिश्रा दिखती हैं, एक अजीब सा अपनापन महसूस होता है। इनकी सादगी और साफ़गोई आज तक किसी और कलाकार में नहीं दिखी।

गाइड

फ़िल्म गाइड : देवानंद (1965)
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बहुधा जीवन एक रेखीय नही होता। इसमे कई उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। दृढ़ व्यक्तित्व में भी परिस्थितिवश विचलन आ जाया करता है। सफलता मनुष्य के अस्मिताबोध को और तीव्र कर देती है, और कभी-कभी यह अहंकार का रूप भी ले लेती है, जिसके लिए अक्सर बाद में पछताना भी पड़ता है।

फ़िल्म 'गाइड' में राजू (देवानंद)और रोज़ी (वहीदा रहमान)की सफलता को इस संदर्भ में देखी जा सकती है।रोज़ी जिस तरह मार्को (किशोर साहू)के यहाँ घुट रही थी और आत्महत्या के कगार पर पहुंच गई थी, उसे उस कैद से मुक्ति दिलाने और अपनी पहचान बनाने में राजू का ही सर्वाधिक योगदान है।पूरी तरह भी कहा जा सकता है।इसके लिए राजू अपने पेशे, घर, परिवार, समाज सब से पृथक हो जाता है, मगर रोज़ी का साथ नही छोड़ता।अंततः रोज़ी सफल होती है। वह बड़ी नृत्यांगना बन जाती है।इस दौरान दोनों एक-दूसरे से प्रेम करने लगते हैं, और विवाह करने की सोचते हैं।

रोज़ी की सफलता में राजू का ख़ुश होना स्वभाविक था।उसने रोज़ी में जो संभावना देखी, वह सार्थक हुई। रोज़ी को भी अपनी महत्ता का अहसास हुआ।मगर सफलता कभी-कभी आदमी में विचलन भी ला देती है। राजू पैसे पानी की तरह बहाने लगता है।नशा, जुआ में डूबकर घर में मज़मा लगाए रहता है। रोज़ी पैसे देने में मना नहीं करती मगर राजू का इस तरह का व्यवहार उसे खटकने लगती है।इधर रोज़ी की महत्ता के कारण लोग बिना राजू की मध्यस्थता के उससे मिलने लगते हैं, इससे राजू असहज होता है।रोज़ी भी कई बार राजू की उपस्थिति को सामान्य ढंग से लेती है।

हालात बदलने लगते हैं। दोनो में नोक झोंक होने लगती है। राजू तो यहां तक कह देता है यदि मैं न होता तो तुम इस जगह न होती। रोज़ी भी अब उसके प्रति पहले सी समर्पण नही दिखाती। इसी बीच मार्को की रोज़ी के नाम पुस्तक पार्सल आता है। यह पुस्तक उसी गुफा से सम्बंधित है जिसकी खोज में वह और रोज़ी राजू गाइड की सम्पर्क में आए थे।राजू मार्को को रोज़ी से न मिलने देता है न ही रोज़ी को पुस्तक दिखाता है।आगे मार्को राजू से कहता है कि लॉकर में रोज़ी के कुछ गहने हैं जिसको निकालने के लिए उसके हस्ताक्षर की आवश्यकता है। राजू इसे रोज़ी को न दिखाकर उसका जाली हस्ताक्षर कर देता है।वह यह कार्य वह इस आशंका से करता है कि कहीं रोज़ी और मार्को में सहज सम्बन्ध न स्थापित हो जाय।ज़ाहिर है यह प्रेम जनित ईर्ष्या है।

मगर यह कार्य आगे उसके लिए आघात देने वाला साबित होता है। राजू और रोज़ी का द्वंद्व बढ़ते जाता है। रोज़ी जैसे-जैसे 'सचेत' होते जाती है, उसका ध्यान राजू की तरफ कम होता जाता है,जिससे वह एक तरह का हीनता महसूस करता है। उसका आत्म सम्मान यह गवारा नही करता और वह अपने घर अपने पुराने काम के लिए लौट आता है। इधर मार्को को अवसर मिलता है और वह जाली हस्ताक्षर के आरोप में राजू को गिरफ़्तार करवा देता है। रोज़ी के पास एक अवसर था यदि वह झूठ बोल देती कि हस्ताक्षर उसी का है तो वह बच सकता था। मगर वह ऐसा नहीं करती और राजू को दो साल की सजा हो जाती है।

राजू के जेल जाने के बाद कहानी में नाटकीयता आती है।अपने अच्छे आचरण के कारण वह छः माह पहले रिहा हो जाता है।मगर बदनामी से बचने वह घर नहीं जाने का निर्णय लेता है और दूसरी राह निकल पड़ता है।बिना मंज़िल के चलते वह साधुओं के एक दल के साथ हो लेता है,जो गांव के एक पुरानी मंदिर में रुकता है। सुबह जब वह जागता है तो साधुओं का दल वहां नहीं रहता और एक साधु उसके ऊपर पीली धोती ओढ़ा दिया रहता है, जिसके कारण गांव वाले उसे भी साधु समझने लगते हैं। परिस्थितियां ऐसी बनती हैं कि गांव वाले उसे सिद्ध महात्मा समझने लगते हैं, और उसके लिए भोजन आदि की व्यवस्था करने लगते हैं। राजू शुरू में असहज महसूस करता है, मगर एकाकी जीवन के कारण वह इसे स्वीकारने भी लगता है। वह अपने सहज ज्ञान से लोगों की अच्छी बातें बताते रहता है। इन्ही बातों में एक दिन वह एक साधु की कहानी सुनाता है जिसने गांव में पानी न गिरने पर बारह दिन का उपवास किया था और जिसके कारण बारिश हुई थी।

विडम्बना की यह कहानी उसके जीवन मे घटित होनी थी!गांव में बारिश न होने से दुर्भिक्ष की स्थिति आ जाती है। लोग भूख से मरने लगते हैं। चोरी, लूट-पाट, हत्या होने लगती है।लोग आशा भरी निग़ाह से राजू की तरफ़ देखने लगते हैं। उस पर उपवास रखने का नैतिक दबाव बन जाता है।वह यह नहीं चाहता। वह बताना चाहता है कि वह कोई सन्त नही एक साधारण आदमी है, मगर परिस्थितियाँ उसके नियंत्रण से बाहर हो चुकी हैं। मगर इस दौरान उसके अंदर इंसानियत भी उभर कर आता है, वह लोगों की भुखमरी से मुक्ति चाहता है,किसी भी तरह, चाहे उसकी जान क्यों न चली जाय।ज्यों-ज्यों अपवास के दिन आगे बढ़ते जाते हैं उसकी चेतना और निर्मल होते जाती है। उसके अंदर मानवीय और 'दैवीय' चरित्र का द्वंद्व बढ़ता जाता है, मगर अंत मे 'दैवीय' पक्ष की विजय होती है। उसका चित्त 'निर्मल' हो जाता है। यहां कथाकार ने अद्वैतवादी चिंतन का सहारा लिया है। यानी शरीर मरता है, आत्मा अमर होती है। राजू का शरीर कमजोर होते जाता है और जिस दिन उसकी मृत्यु होती है उसी दिन तेज बारिश होती है।

मृत्यु पूर्व उसकी माँ, रोज़ी, दोस्त सब उसके करीब आ चुके होते हैं। इस तरह इस दुखांत में लोक कल्याण की भावना जुड़ जाती है। फ़िल्म में चरित्र मुख्यतः तीन ही हैं मार्को, रोज़ी और राजू। मार्को एक पुरातत्वविद है, सम्पन्न है,प्रतिभावान है, अपने काम के प्रति उसमे जुनून है मगर उसमे मानवीयता नहीं।है। उसने रोज़ी से विवाह किया मगर महज एक अहसान भाव से, उसकी खुशियों, इच्छाओं यानी उसकी जिंदगी का उसे कोई परवाह नहीं। वह सामंती पितृसत्ता के मूल्य से ग्रसित है जहां स्त्री की कोई निजी पहचान नहीं होती। मगर वही मार्को रोज़ी के प्रसिद्ध होने पर उससे जुड़ना चाहता है तो इसका कारण केवल उसका स्टेटस है।

रोज़ी एक देवदासी की पुत्री है। शिक्षित है, नृत्यकला में पारंगत है मगर उसकी 'सामाजिक छवि' उसके जीवन के लिए अभिशाप है।मार्को से बेमेल विवाह का कारण यही है। बावजूद इसके वह समझौता करती है और ख़ुशी ढूंढने का प्रयास करती है, मगर मार्को उसे कदम-कदम पर आहत करता है। राजू के सम्पर्क में आने से उसे अपनी अस्मिता का बोध होता है, और उसके सानिध्य में वह अपनी पहचान बनाती है।

राजू एक गाइड है।महलों, खंडहरों का जानकार। मगर इसके अलावा संवेदनशील इंसान है। मार्को और रोज़ी से उसका सम्पर्क उसके पेशे के कारण ही होता है। इस दौरान वह मार्को के अमानवीय और दोहरे चरित्र को देखता है। रोज़ी के जीवन की विडम्बना उसे असहज करती है। वह बार-बार प्रयास करता है कि दोनों का दाम्पत्य सहज हो जाय, मगर असफल रहता है। इस दौरान वह रोज़ी के करीब आते जाता है,उसे आत्महत्या से बचाता है, उसकी मदद करता है, उसे अपनी पहचान बनाने में सहयोग करता है। स्वाभाविक रूप से इस क्रम में दोनो के बीच प्रेम पैदा हो जाता है।

फ़िल्म आर.के. नारायण के अंग्रेजी उपन्यास ' द गाइड'(1958)पर आधारित है, निर्माता देवानंद और निर्देशक विजय आनंद है।फ़िल्म में मोहम्मद रफ़ी के कुछ बेहतरीन गीत हैं।

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#अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छ. ग.)
  मो. 9893728320

पंडित रविशंकर जी

शास्त्रीय संगीत को भारत में उसकी पहचान के तौर पर देखा जाता है। इस पहचान को विश्वपटल रखने का जिस संगीतसाधक ने जिम्मा उठाया था उसे हम सितार के जादूगर स्वर्गीय 'पंडित रविशंकर' के नाम से जानते हैं। आज उनकी पुण्यतिथि (11 दिसंबर 2012) पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि ~
आज ही इनके भतीजे अनंदा शंकर की जयंती भी है।

भारत की सांस्कृतिक ख्याति को पश्चिम में व्यापक तौर पर स्वीकार्य बनाने वाले पंडित रविशंकर का जन्म 7 अप्रैल, 1920 को वाराणसी के एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ। वह अपने सात भाइयों में सबसे छोटे थे। पंडित रविशंकर बचपन से ही संगीत के माहौल में पले-बढ़े और तरह-तरह के वाद्य यंत्रों के प्रति उनकी रुचि रही। शुरुआत में पंडित रविशंकर ने नृत्य के जरिए कला जगत में प्रवेश किया जिसमें उनके भाई #उदयशंकर (इनके बारे में जानने के लिए 8 दिसंबर की पोस्ट पढ़ें) ने काफी सहायता की। अठ्ठारह साल की उम्र में उन्होंने नृत्य छोड़कर सितार सीखना शुरू कर दिया जिसके लिए उन्होंने अपने उस्ताद अलाउद्दीन खान से दीक्षा ली।

पंडित रविशंकर का पारिवारिक और वैवाहिक जीवन विवादास्पद रहा। एक्स्ट्रा मेरिटल अफेयर उनके जीवन में कई बार घटित हुए वरन उनकी दोनों बेटियों के जन्म भी अलग-अलग स्त्रियों से हुए। सबसे पहले उन्होंने वर्ष 1941 में अपने गुरु अलाउद्दीन खान की पुत्री अन्नपूर्णा देवी से शादी की थी जिससे उनको एक पुत्र शुभेंद्र शंकर का जन्म हुआ। वर्ष 1992 में शुभेंद्र की मृत्यु हो गई। 1940 के दशक में ही वह अन्नपूर्णा देवी से अलग हो गए और इसी दशक के अंत में कमला शास्त्री नाम की नृत्यांगना से उनके प्रेम संबंध रहे।

अस्सी के दशक के दौरान न्यूयार्क कंसर्ट की निर्माता सू जोंस से उनका प्रेम संबंध काफी चर्चित रहा और इसी दरमियान वर्ष 1989 में उनकी बड़ी पुत्री नोराह जोंस का जन्म हुआ। नोराह जोंस अमरीका में एक प्रसिद्ध गायिका हैं। कमला शास्त्री से अलगाव होने के बाद उनके संबंध सुकन्या राजन से रहे जिनसे उन्हें वर्ष 1981 में एक और पुत्री अनुष्का शंकर पैदा हुईं. बाद में उन्होंने सुकन्या राजन से वर्ष 1989 में विवाह कर लिया। अपने पिता की तरह अनुष्का और नोराह भी ग्रेमी आवार्ड से सम्मानित हो चुकी हैं।

संगीत कला में असीम ऊंचाइयां छूने वाले पंडित रविशंकर को अगर किसी वजह से सबसे अधिक जाना जाता है तो वह है उनका भारतीय संगीत को पश्चिम में लोकप्रिय बनाने का योगदान। पंडित रविशंकर के जीवन में सबसे बड़ा पल साल 1966 का था जब उनकी मुलाकात बीटल्स समूह के सदस्य जॉर्ज हैरिसन से हुई। यह वह समय था जब युवाओं में रॉक और जैज का संगीत सर चढ़कर बोल रहा था। रविशंकर ने इन्हीं युवाओं के बीच जाकर अपने संगीत के जादू से इनका मन मोह लिया। उन्होंने जार्ज हैरिसन, जॉन काल्तरें, जिमी हेंड्रिक्स जैसे नामचीन संगीत के प्रतिनिधियों के साथ कई कार्यक्रम दिए। उन्होंने पश्चिम और पूरब की संगीत परम्पराओं के सम्मिश्रण से ‘फ्यूजन म्यूजिक’ को भी सबके सामने लाने में अपना योगदान दिया।

पंडित रवि शंकर की कला ही थी कि लंदन के सिंफनी ऑर्केस्ट्रा और न्यूयॉर्क के फिलहॉर्मानिक ने एंड्रेप प्रेविन तथा जुबिन मेहता जैसे अप्रतिम संगीतकारों के साथ मिलकर ऑर्केस्ट्रा की कुछ बेहद आकर्षक धुनों की रचना की जो आज भी संगीत की एक अमूल्य धरोहर के रूप में गिनी जाती हैं।

पंडित रविशंकर ने हिंदी सिनेमा के लिए भी संगीत दिया और बेहद कलात्मक ढंग से संगीत देने में वे सफल रहे। शुरुआत में उन्होंने ‘नीचा नगर’  और ‘धरती के लाल’ जैसी फिल्मों में संगीत दिया। बाद में उन्होंने ऋषिकेश मुखर्जी की ‘अनुराधा’, त्रिलोक जेटली निर्देशित ‘गोदान’ और गुलजार की ‘मीरा’ का भी संगीत दिया। उन्होंने सत्यजित रे की तीन फिल्मों ‘पथेर पांचाली’ (1955), ‘अपराजितो’ तथा ‘अपूर संसार’ को अपने संगीत से संवारा। रिचर्ड एटनबरो की महान फिल्म गांधी के संगीत निर्देशन के लिए उन्हें ऑस्कर के लिए भी नामित किया गया था। 1949 से 1956 तक उन्होंने आकाशवाणी में बतौर संगीत निर्देशक भी काम किया।

भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से पुरस्कृत पंडित रवि शंकर का 11 दिसंबर, 2012 को सांस लेने में तकलीफ के चलते अमरीका के सैन डिएगो के स्क्रिप्स मेमोरियल अस्पताल में निधन हो गया। इस महान शख्सियत को आज भी लोग भारतीय शास्त्रीय संगीत में उनके योगदान के लिए याद करते हैं।

दिलीप कुमार

मोहम्मद यूसुफ़ ख़ान उर्फ 'दिलीप कुमार' साहब अभी चंद महीने पहले हमसे जुदा हुये। उनके मरणोपरांत आज उनकी पहली (11 दिसंबर 1922) जयंती पर उन्हें याद करते हुए उन्हें ख़िराज ए अक़ीदत ~

दिलीप साहब ने उम्र का ही नहीं बल्कि अभिनय का भी एक लंबा सफर तय किया। और अपनी एक अलग ही अभिनय शैली विकसित की। उन्हें फ़िल्म इंडस्ट्री का 'ट्रेजेडी किंग' कहा गया। और हर बड़े सम्मान व पुरुस्कार से नवाजा गया। उन्होंने फ़िल्म ज्वारभाटा (1944) से अपना सफर शुरू किया। फ़िल्म जुगनू (1947) में कामयाबी पाई। और आखरी बार फ़िल्म किला (1998) में दिखे।

आज उनकी जयंती पर आपके समक्ष फ़िल्मों के कुशल अभिनेता 'आशुतोष राणा' जी का लिखा वो लेख हूबहू रख रहा हूँ। जो उन्होंने दिलीप साहब के देहावसान वाले दिन लिखा था।

•॥#नटसम्राट॥• 
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किसी भी अभिनेता को यदि प्रभावशाली होना है तो भाषा पर उसका अधिकार होना चाहिए महानायक युग की शुरुआत करने वाले श्रद्धेय सर दिलीप कुमार साहब वैसे ही कलासाधक थे जिन्होंने भाषा-भाव को सिद्ध किया हुआ था, उनके मुँह से निकलने वाले शब्द दर्शकों को मात्र सुनाई ही नहीं देते थे बल्कि दिखाई भी देते थे। 

मैं जैसे-जैसे बड़ा होता गया और जब यह निश्चित हो गया की अभिनय ही मेरे जीवन का मार्ग बनाने वाला है तब श्रद्धेय दिलीप कुमार साहब के अभिनय को देखकर मुझे यह शिक्षा मिली की- अभिनेता के मुँह से निकलने वाले शब्द दिखाई देने चाहिए और अभिनेता के द्वारा लिया गया पॉज़ ( सन्नाटा ) दर्शक को सुनाई देने चाहिए तभी वह अभिनेता और उसके द्वारा अभिनीत चरित्र दर्शकों की चिरस्मृति में स्थान प्राप्त कर सकता है। किंतु हम आज के अभिनेता अक्सर इसका उल्टा करते हैं, हमारी कोशिश होती है की शब्द सुनाई पड़े और सन्नाटा दिखाई दे। इसलिए हमारा अभिनय महज़ क्राफ़्ट तक ही सिमटकर रह जाता है वह कला के पायदान पर नहीं पहुँच पाता। 

श्रद्धेय सर दिलीप कुमार साहब से जुड़ा एक वाक़या जिसने मेरी सिनेमाई यात्रा में पथप्रदर्शक का कार्य किया उसे आप मित्रों से साझा कर रहा हूँ। 

मेरी फ़िल्म दुश्मन रिलीज़ हुई, मेरे किरदार को बहुत सराहना मिली, मुझे बेस्ट ऐक्टर इन नेगेटिव रोल के लिए फ़िल्म फ़ेयर से लेकर लगभग सारे अवॉर्ड्स मिले। रातों रात गुमनाम सा आशुतोष एक नाम वाले आशुतोष राना में बदल गया, मैं फ़िल्मी जलसों में बुलाया जाने लगा, ऐसे ही एक जलसे में अचानक सर दिलीप कुमार साहब से मेरी मुलाक़ात हो गई। 

जिनका अभिनय देखकर हम बड़े हुए हों, जिनको हमने अभी तक मात्र रूपहले पर्दे पर ही देखा हो, जिनकी कला के आप आत्मा से प्रशंसक हों, जिनकी कला आपके लिए प्रेरणा का कार्य करती हो जब वह शख़्सियत वास्तविक जीवन में अचानक आपके सामने उपस्थित हो जाए तो आपके होश उड़ जाते हैं। मैं एक पल भी गँवाए बिना रोमांचित, सम्मोहित सा उनके पास गया झुककर उनके चरण स्पर्श किए और अभिभूत कंठ से अपना परिचय उन्हें देते हुए बोला- सर, मेरा नाम आशुतोष राना है। मैं नवोदित अभिनेता हूँ, मैंने हाल ही में दुश्मन नाम की एक फ़िल्म की है जिसे महेश भट्ट सर और मुकेश भट्ट सर की विशेष फ़िल्मस ने प्रोडयूस किया है, तनुजा चंद्रा इसकी निर्देशक हैं। 

वे आँखों में किंचित मुस्कान लिए बहुत धैर्यपूर्वक मुझे देख और सुन रहे थे, फिर बहुत स्नेह से मेरा हाथ अपने हाथ में थामते हुए बोले- बर्खुरदार, मैंने आपका काम देखा है..आपके हुनर से इत्तफ़ाक़ भी रखता हूँ, इसलिए आपको एक मशविरा देना चाहता हूँ। 

जो अभिनेता नहीं स्वयं अभिनय हैं ऐसे सर दिलीप कुमार साहब मेरा हाथ थामे हुए मुझे सराह रहे हैं, सलाह देना चाहते हैं, उन्होंने मेरा काम देखा हुआ है ! यह सुनकर मेरे घुटनों में कंपकपी होने लगी, मेरी नाभि के पास से एक लहर सी उठी, मुझे लगा जैसे मेरे सिर के बाल खड़े हो गए हैं। 

वे मेरी मन:स्थिति को भली भाँति समझ रहे थे उन्होंने मुझे सहज करते हुए जो कुछ कहा वह मेरे आगे के जीवन, मेरी अभिनय यात्रा का मूल मंत्र बन गया, वे बोले- बर्खुरदार चाहे दिलीप कुमार हो या आशुतोष राना, हम सभी अभिनेता खिलौना बेचने वाले जैसे होते हैं। हम सभी के पास एक निश्चित संख्या में खिलौने होते हैं। अब ये तुम्हारे ऊपर निर्भर करता है की तुम अपने सभी खिलौनों को सिर्फ़ पाँच साल में बेंचकर अपनी दुकान बंद कर लेते हो, या तुम एकदम से नहीं बल्कि धीरे-धीरे अपने पास के खिलौनों को पचास साल तक लगातार बेचते रहते हो। दिलीप कुमार को दुनिया से इसलिए बेशुमार प्यार मिला क्योंकि दिलीप कुमार ने बहुत धीरे-धीरे क़रीब पचास-पचपन साल तक अपने खिलौनों को बेचा है। तुम काम जानते हो इसलिए मेरा मशविरा है की जल्दबाज़ी मत करना, बहुत जतन से काम करना, किसी दौड़ का हिस्सा मत बनाना। हो सकता है बीच में तुम्हारे पास बिलकुल भी काम ना हो, कुछ काम तुम्हारे हाथ से छूट जाएँ लेकिन तुम जगह मत छोड़ना। अपनी चाल चलना और दुनिया से कहना- “मेरे पैरों में घुँघरू बंधा दे और फिर मेरी चाल देख ले।” ये कहते हुए उन्होंने स्नेह से मेरे सिर को सहलाया और चले गए। 

आज इस संयोग पर आश्चर्य होता है की मुझे सलाह देते हुए गाने की जो पंक्ति उन्होंने बोली थी वह उनकी फ़िल्म “संघर्ष” का गाना था और मुझे भी “संघर्ष” नाम की एक फ़िल्म करने का सौभाग्य प्राप्त है। 

श्रद्धेय दिलीप साहब ने जो कहा वह सिर्फ़ अभिनेताओं लिए ही नहीं बल्कि हर सृजनशील व्यक्ति के काम का है। यदि इसे आज की मार्केटिंग की भाषा में समझें तो जितना महत्व प्रोडक्ट का होता है उससे अधिक महत्वपूर्ण फ़र्म होती है। यह सत्य है की किसी प्रोडक्ट की गुणवत्ता किसी फ़र्म को खड़ा करने में सहायक होती है लेकिन एक समय ऐसा आता है जब फ़र्म की विश्वसनीयता प्रोडक्ट को प्रतिष्ठा प्रदान करती है। 
प्रोडक्ट वही चलता है जिसमें बाज़ार की आवश्यकता, उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए लगातार बदलाव होता रहे और फ़र्म वही विश्वसनीय होती है जो लम्बे समय तक बिना डिगे अपनी प्रतिष्ठा को बरक़रार रख सके। 

श्रद्धेय दिलीप कुमार साहब भारतवर्ष के ऐसे महान अभिनेता थे जिन्होंने अभिनय शास्त्र में वर्णित सभी परिभाषाओं को, अभिनय के सभी प्रकारों को बहुत सहजता के साथ अपनी कला में चरितार्थ करके बताया था। उनका पंच भौतिक शरीर भले ही इस संसार से चला गया है लेकिन दिलीप साहब जैसे कलासाधक की कला इस संसार के कलाप्रेमियों के हृदय में सदैव वर्तमान रहेगी.. भावपूर्ण श्रद्धांजलि।~#आशुतोष_राना 🙏

प्रदीप

कवि प्रदीप 'ऐ मेरे वतन के लोगों' सरीखे देशभक्ति गीतों के लिए जाने जाते हैं। यूँ तो कवि प्रदीप ने प्रेम के हर रूप और हर रस को शब्दों में उतारा, लेकिन वीर रस और देश भक्ति के उनके गीतों की बात ही कुछ अनोखी थी। आज उनकी पुण्यतिथि (11 दिसंबर 1998) पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि ~

कवि प्रदीप का जन्म 6 फ़रवरी 1915 में मध्य प्रदेश में उज्जैन के बड़नगर नामक क़स्बे में हुआ था। प्रदीप जी का मूल नाम 'रामचंद्र नारायण द्विवेदी' था। इनके पिता का नाम नारायण भट्ट था। शुरुआती शिक्षा इंदौर के 'शिवाजी राव हाईस्कूल' में हुई, जहाँ वे सातवीं कक्षा तक पढ़े। इसके बाद की शिक्षा इलाहाबाद के दारागंज हाईस्कूल में संपन्न हुई। इसके बाद इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की। दारागंज उन दिनों साहित्य का गढ़ हुआ करता था। वर्ष 1933 से 1935 तक का इलाहाबाद का काल प्रदीप जी के लिए साहित्यिक दृष्टीकोंण से बहुत अच्छा रहा। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक की शिक्षा प्राप्त की एवं अध्यापक प्रशिक्षण पाठ्‌यक्रम में प्रवेश लिया। विद्यार्थी जीवन में ही हिन्दी काव्य लेखन एवं हिन्दी काव्य वाचन में उनकी गहरी रुचि थी। कवि प्रदीप का विवाह मुम्बई निवासी गुजराती ब्राह्मण चुन्नीलाल भट्ट की पुत्री सुभद्रा बेन से 1942 में हुआ था।

वर्ष 1939 में लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक तक की पढ़ाई करने के बाद कवि प्रदीप ने शिक्षक बनने का प्रयास किया, लेकिन इसी दौरान उन्हें मुंबई में हो रहे एक कवि सम्मेलन में हिस्सा लेने का न्योता मिला। कवि सम्मेलन में उनके गीतों को सुनकर 'बाम्बे टॉकीज स्टूडियो' के मालिक हिंमाशु राय काफ़ी प्रभावित हुए और उन्होंने प्रदीप को अपने बैनर तले बन रही फ़िल्म ‘कंगन’ के गीत लिखने की पेशकश की। इस फ़िल्म में अशोक कुमार एवं देविका रानी ने प्रमुख भूमिकाएँ निभाई थीं। 1939 में प्रदर्शित फ़िल्म 'कंगन' में उनके गीतों की कामयाबी के बाद प्रदीप बतौर गीतकार फ़िल्मी दुनिया में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। इस फ़िल्म के लिए लिखे गए चार गीतों में से प्रदीप ने तीन गीतों को अपना स्वर भी दिया था। इस प्रकार ‘कंगन’ फ़िल्म के द्वारा भारतीय हिंदी फ़िल्म उद्योग को गीतकार, संगीतकार एवं गायक के रूप में एक नयी प्रतिभा मिली। सन 1943 में मुंबई की 'बॉम्बे टॉकीज' की पांच फ़िल्मों- ‘अंजान’, ‘किस्मत’, ‘झूला’, ‘नया संसार’ और ‘पुनर्मिलन’ के लिये भी कवि प्रदीप ने गीत लिखे। छद्म नाम से गीत लेखन 'फ़िल्मिस्तान' फ़िल्म निर्माण संस्था से अनुबंधित होने पर भी आंतरिक राजनीति के कारण कवि प्रदीप से गीत नहीं लिखाए जा रहे थे। इससे दु:खी होकर वे 'मिस कमल बी.ए.' के छद्म नाम से गीत लिखने लगे। उन्होंने चार फ़िल्मों के लिए इसी नाम से गीत लिखे।

प्रदीप का वास्तविक नाम रामचन्द्र नारायण दिवेदी था, किन्तु एक बार हिमांशु राय ने कहा कि ये रेलगाड़ी जैसा लम्बा नाम ठीक नही है, तभी से उन्होंने अपना नाम प्रदीप रख लिया। प्रदीप नाम के पीछे उनके जीवन का एक रोचक प्रसंग भी है। उन दिनों मुम्बई में अभिनेता और कलाकार प्रदीप कुमार भी प्रसिद्ध हो रहे थे, जिस कारण अक्सर गलती से डाकिया कवि प्रदीप की चिठ्ठी अभिनेता प्रदीप के पते पर डाल देता था। डाकिया सही पते पर पत्र दे, इस वजह से उन्होंने प्रदीप के पहले 'कवि' शब्द जोड़ दिया और यहीं से कवि प्रदीप के नाम से वे प्रख्यात हुए।

फिर बॉम्बे टॉकीज छोड़ ‘फ़िल्मिस्तान’ से जुड़े पर यह निर्णय प्रदीप पर भारी पड़ा। ‘फ़िल्मिस्तान’ की पहली फ़िल्म ‘चल-चल रे नौजवान’ (1944) थी। जितनी आशा थी, उतनी न फ़िल्म चली और न ही इसके गाने। इस फ़िल्म के लिए प्रदीप ने बारह गीत लिखे थे। फ़िल्म के असफल होने पर इस संस्था में भी राजनीति आ गई। उन्होंने प्रदीप को अलग-थलग कर दिया और गाने लिखाने बंद कर दिये गए। प्रदीप फ़िल्मिस्तान से हुए कॉन्ट्रेक्ट से बंधे थे। वेतन मिल रहा था, किंतु काम नहीं। प्रदीप के कोमल मन पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा। वे नहीं चाहते थे कि उनकी कलम कुंठित हो जाए। अत: अपनी आत्मा की आवाज़ के विरुद्ध ‘मिस कमल बी.ए.’ के नकली नाम से बाहर की फ़िल्मों के लिए गीत लिखने लगे। ‘लक्ष्मी प्रोडक्शंस’ की तीन फ़िल्में- ‘कादम्बरी’ (1944), ‘सती तोरल’ (1947), ‘वीरांगना’ (1947) तथा मुरली मूटीटोन की एक फ़िल्म ‘आम्रपाली’ (1945) के गीत लिखे। इस बीच फ़िल्मिस्तान ने प्रदीप से 1946 में ‘शिकारी’ फ़िल्म के लिए गीत लिखवा लिए। इन फ़िल्मों के गीतों में साहित्यिकता भले ही हो, पर पहले जैसी लोकप्रियता का तत्त्व कहीं खो गया था। 'मिस कमल बी.ए.' के नकली नाम से लिखते-लिखते और फ़िल्मिस्तान की राजनीति से प्रदीप ऊब चुके थे। अत: उन्होंने फ़िल्मिस्तान से अलग होकर, अपने सहयोगियों की मदद से ‘लोकमान्य प्रोडक्शंस’ नामक फ़िल्म निर्माण संस्था बनाई। 1949 में पहली फ़िल्म आई ‘गर्ल्स स्कूल’, जिसमें प्रदीप के नौ गाने थे। सी. रामचंद्र और अनिल विश्वास जैसे संगीतकारों का निर्देशन, लता मंगेशकर और शमशाद बेगम का गायन भी कोई करिश्मा नहीं कर पाया। कवि प्रदीप समझ गए कि फ़िल्म कम्पनी चलाना उनके बस की बात नहीं है, क्योंकि इससे उनकी मुख्य धारा कुंठित हो रही थी। अत: वे 'लोकमान्य प्रोडक्शंस' से अलग हो गए और फिर स्वतंत्र रूप से लिखने लगे। 'बॉम्बे टॉकीज' ने इस अवसर का लाभ उठाया और अपनी फ़िल्म ‘मशाल’ (1950) के लिए उनसे सात गीत लिखवाए। इस परिवर्तन का कारण यह था कि बॉम्बे टॉकीज का काम सावक वाचा के साथ अशोक कुमार देख रहे थे, जो प्रदीप से पहले से ही काफ़ी प्रभावित थे। सचिन देव बर्मन ने अच्छी धुनें बनाईं और गीत चल निकले। प्रकृति की महानता को उजागर करने वाले इस फ़िल्म के एक गीत ने पूरे भारत में ख्याति अर्जित की। गीत था- ‘ऊपर गगन विशाल, नीचे गहरा पाताल।‘ ‘सती तोरल’ और ‘कादम्बरी’ के गीत गा चुके मन्ना डे ने लिखा था- "मैं तो प्रदीप जी ऋणी हूँ और जन्म भर रहूँगा, क्योंकि मुझे सर्वप्रथम लोकप्रियता प्रदीप जी के गीत ‘ऊपर गगन विशाल’ ने ही दी है।" गीतकार शैलेंद्र ने उनसे कहा- "प्रदीप जी, ऐसा और इस कोटि का गीत केवल आप ही लिख सकते हैं।" 'फ़िल्मिस्तान कम्पनी' के शशधर मुखर्जी प्रदीप की कलम का जादू जानते थे। अपनी सामाजिक फ़िल्म ‘नास्तिक’ (1945) के सभी नौ गीत प्रदीप से लिखवाए। सभी गीत लोकप्रिय हुए और फ़िल्म हिट हो गई। प्रदीप के अंदर बैठे साहित्यकार को मुखर होने और गीतों में नये प्रयोग करने का अवसर मिला। दु:ख में ईश्वर याद आता है, उसी से फ़रियाद करते हुए लिखा और गाया- "देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान! कितना बदल गया इंसान।" इस गीत ने लोकप्रियता की बुलन्दियों को छू लिया। लता जी आमतौर पर मुजरा नहीं गाती हैं, परंतु इस गीत के लिए प्रदीप का लिखा मुजरा शालीन था, अत: उन्होंने खुशी से गाया- ‘कैसे आए हैं दिन हाय अंधेर के, बैठे बलमा हमारे नज़र फेर के'।मुजरों में आमतौर पर अश्लीलता परोसी जाती थी। श्रृंगार में अश्लीलता से बचना प्रदीप जानते थे। इसी फ़िल्म में उनके एक अन्य गीत को लता मंगेशकर ने गया- ‘होने लगा है मुझपे जवानी का असर। झुकी जाए नज़र ...।‘ इस फ़िल्म के गीतों का पहला एल.पी. रिकॉर्ड बना था।

'ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी' साठ के दशक में चीनी आक्रमण के समय लता मंगेशकर द्वारा गाया गया था। यह गीत कवि प्रदीप द्वारा लिखा गया था। कौन-सा सच्चा हिन्दुस्तानी इसे भूल सकता है? इस गीत के कारण 'भारत सरकार' ने कवि प्रदीप को ‘राष्ट्रकवि’ की उपाधि से सम्मानित किया था। और प्रदीप ने यह लिखकर दिया था कि- "ऐ मेरे वतन के लोगों" गीत से मिलने वाली रॉयल्टी की राशि शहीद सैनिकों की विधवा पत्नियों को दी जाए।" प्रदीप ने ‘नास्तिक’ एवं ‘जागृति’ फ़िल्मों के लिए जो गीत लिखे, स्वयं उन्होंने ही उन्हें गाया भी था। उससे सामाजिक विघटन की एक झलक मिलती है- ‘देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान, कितना बदल गया इंसान। चांद न बदला सूरज न बदला, कितना बदल गया इंसान।।’ 'पैगाम' फ़िल्म के लिए कवि प्रदीप का लिखा गीत ‘इंसान का इंसान से हो भाईचारा यही पैगाम हमारा’ यह गाना भी काफ़ी लोकप्रिय हुआ था। अपने गीतों के बलबूते पर बॉक्स ऑफिस पर रिकार्ड तोड़ व्यवसाय करने वाली फ़िल्म थी ‘जय संतोषी मां’, जो कवि प्रदीप के जीवन में एक अविस्मरणीय यशस्वी फ़िल्म का उदाहरण बनी थी। इस फ़िल्म में कोई नामचीन कलाकार नहीं था, परंतु कवि प्रदीप के छहों भक्ति प्रधान गीतों ने फ़िल्म को सुपरहिट कर दिया। कुछ गीतों की बानगी इस प्रकर है- ‘मैं तो आरती ऊतारूँ रे संतोषी माता की’, ‘यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ मत पूछो कहाँ-कहाँ, है संतोषी माँ’, ‘करती हूँ तुम्हारा व्रत में स्वीकार करो माँ’।

समाज की बिगड़ती दशा को देखकर उनकी अंतरआत्मा ईश्वर से कहती है कि "देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान कितना बदल गया इंसान।" सामाजिकता की भावना से ओतप्रोत होकर विश्वबंधुत्व की भावना में उन्होंने लिखा था- "इंसान से इंसान का हो भाई चारा, यही पैगाम हमारा, संसार में गूँजे समता का इकतारा, यही पैगाम हमारा"। गायक के रूप में उनकी लोकप्रियता का माध्यम बना `जागृति' फ़िल्म का गीत जिसके बोल हैं - "आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की"। संगीत निर्देशक हेमंत कुमार, सी. रामचंद्र, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल आदि ने समय-समय पर कवि प्रदीप के लिखे कुछ गीतों का उन्हीं की आवाज में रिकॉर्ड किया। `पिंजरे के पंछी रे तेरा दर्द न जाने कोय', `टूट गई है माला मोती बिखर गए', कोई लाख करे चतुराई करम का लेख मिटे न रे भाई', जैसा भावना प्रधान गीतों को बहुत आकर्षक अंदाज में गाकर कवि प्रदीप ने फ़िल्म जगत् के गायकों में भी अपना अलग ही महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया था, एक गीत यद्यपि कवि प्रदीप ने स्वयं गाया नहीं था, लेकिन उनकी लिखी इस रचना ने ब्रिटिश शासकों को हिला दिया था, जिसके बोल हैं- आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है। 

कवि प्रदीप को अनेक सम्मान प्राप्त हुए थे, जिनमें 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार' (1961) तथा 'फ़िल्म जर्नलिस्ट अवार्ड' (1963) शामिल हैं। यद्यपि साहित्यिक जगत् में प्रदीप की रचनाओं का मूल्यांकन पिछड़ गया तथापि फ़िल्मों में उनके योगदान के लिए भारत सरकार, राज्य सरकारें, फ़िल्मोद्योग तथा अन्य संस्थाएँ उन्हें सम्मानों और पुरस्कारों से अंलकृत करते रहे। उन्हें सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मी गीतकार का पुरस्कार राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद द्वारा दिया गया। 1995 में राष्ट्रपति द्वारा ‘राष्ट्रकवि’ की उपाधि दी गई और सबसे अंत में, जब कवि प्रदीप का अंत निकट था, फ़िल्म जगत् में उल्लेखनीय योगदान के लिए 1998 में भारत के राष्ट्रपति के.आर. नारायणन द्वारा प्रतिष्ठित ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ दिया गया। सुश्री मितुल जब अपने बीमार पिता प्रदीप को पहिया कुर्सी पर बिठाकर मंच की ओर बढ़ रही थीं तो हॉल में ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालों’ गीत बज रहा था। सभी उपस्थित जन अपनी जगहों पर खड़े हो गए थे। उनकी आँखों में आँसू थे। राष्ट्रपति ने पहले प्रदीप के स्वास्थ्य के बारे में पूछा और फिर पुरस्कार प्रदान किया। जब वे लौटने लगे तो दूसरा गीत बज उठा ‘हम लाए हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के’ लोग अब भी खड़े थे और तालियाँ बजाये जा रहे थे। कवि प्रदीप का हर फ़िल्मी-ग़ैर फ़िल्मी गीत अर्थपूर्ण होता था और जीवन को कोई न कोई दर्शन समझा जाता था। खेद का विषय यह है कि ऐसे महान् देश भक्त, गीतकार एवं संगीतकार को भारत सरकार ने ‘भारत रत्न’ से सम्मानित नहीं किया।

कवि प्रदीप ने अपने जीवन में 1700 गाने लिखे। ‘बंधन’ के अपने गीत ‘रुक न सको तो जाओ तुम’ को यथार्थ करते हुए 11 दिसंबर 1998 को राष्ट्रकवि प्रदीप का कैंसर से लड़ते हुए 83 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उनके निधन के समाचार से स्तब्ध हुए लोगों का सैलाब विले पार्ले स्थित उनके आवास ‘पंचामृत’ की ओर उमड़ पड़ा था। अर्थी उठी तो ‘पं. प्रदीप अमर रहें’ के समवेत उद्घोष से पूरा इलाका थर्रा गया। संगीत निर्देशक सचिन देव बर्मन ने उनके गीत, उनका गायन और स्वर संयोजन देखकर कहा था कि- “तुम्हें कोई ‘आउट’ नहीं कर सकता।“ प्रदीप मर कर भी आउट नहीं हुए हैं। वे अब अपने गीत की पंक्तियों में अमर हैं।

साभार : भारतकोष

Friday, December 10, 2021

मीना कुमारी

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                ●यूँ ही कोई मिल गया था●

“यूँ ही कोई मिल गया था, सरे राह चलते चलते” फिल्म पाकीज़ा, निर्माता, निर्देशक, कहानीकार, कलाम अमरोही, नायिका मीना कुमारी, नायक राजकुमार, गायक स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर, गीतकार कैफ़ी आज़मी, संगीतकार गुलाम महोम्मद, पृष्ठभूमि में गुजरती रेलगाड़ी की कूऊऊऊऊ की ध्वनि एक अद्भुत समिश्रण, एक कालजयी गीत बन गया. सन 1972 में यह फिल्म आयी थी. शुरुआत धीमी थी पर फिल्म रिलीज होने के कुछ समय पश्चात ही मीना कुमारी की मृत्यू हो गयी, यह उनकी अंतिम फिल्म थी जो रिलीज हुई थी. पर इसके पश्चात ही फिल्म सुपर हिट हो गयी. इस फिल्म को बनने में 14 वर्ष लगे थे, फिल्म शुरु हुई थी तब ब्लैक एंड व्हाइट थी, नायक अशोक कुमार थे, संगीत निर्देशक गुलाम महोम्मद थे, कमाल अमरोही पति पत्नी थे, पर बाद में तलाक हो गया था, इस बीच रंगीन सिनेमा का जमाना आ गया तो फिर से शूटिंग प्रारम्भ हुई, अशोक कुमार की उम्र ढल गयी थी, इसलिये उनका किरदार बदला गया और नायक के रूप में राजकुमार आये, इसलिये कहानी में भी बदलाव किया गया, संगीतकार के रूप में नौशाद आये क्योंकि गुलाम महोम्मद अस्वस्थ हो गये थे. पर कुछ में उनका ही संगीत था और वह किसी प्रकार से रिकार्डिंग के लिये आये थे. पर फिल्म के सभी संगीत व गीत अति उत्तम थे. उपर से मीना कुमारी का मुज़रा, उसने तो सदैव ही कमाल किया था. इसके अतिरिक्त मीना कुमारी जब पत्र पढ़ती है, राजकुमार की नेपत्थ्य में गूंजती दमदार आवाज “आपके पाँव देखे, बहुत हसीन हैं, इन्हें जमीन पर न उतारियेगा, मैले हो जायेंगे” एक कालजयी संवाद बन गया.

 “अजीब दास्तां है ये, कहाँ शुरु कहाँ खतम, ये मंजिलें हैं कौन सी, न वो समझ सके न हम” महज़बीं बानो उर्फ मीना कुमारी के जीवन की दास्तां भी अजीब है, उन्ही पर फिल्माया गया “दिल अपना और प्रीत पराई” का यह गीत उनके जीवन को परिभाषित करता है. फिल्म में निभाये गये अधिकतर किरदार की भांति दुखोँ से भरपूर है. उन्हें मीना कुमारी का नाम फिल्म निर्माता विजय भट्ट ने दिया था, जब वह मात्र 7 वर्ष की उम्र में फिल्मों में काम करने के लिये प्रस्तुत हुई थी, फिल्म थी 1939 की “लेदरफेस” और महज़बीं बेबी मीना बन गयी. इनकी बड़ी बहन खुर्शीद व पिता अलीबख्श भी फिल्मों में छोटे मोटे रोल किया करते थे. कहते हैं जब मीना कुमारी के लिये भी फिल्मों में काम के लिये जब अली बख्श ने बच्ची को काम दिलवाने के लिये अशोक कुमार से निवेदन किया तब अशोक कुमार ने कहा “अभी तो तुम बच्ची हो जब बड़ी हो जाओगी, मेरी फिल्म में हीरोइन बनना”. तब सभी ने इस बात को मज़ाक में लिया पर समय के साथ यह सत्य सिद्ध हुआ. इनका मातृत्व सम्बंध रविंद्रनाथ टैगोर के परिवार से भी था. इनकी माता जी का नाम प्रभावती था व नानी का नाम हेमवती था जो टैगोर परिवार से थी. प्रभावती ने पहले प्यारेलाल मेरठी से विवाह किया व उनकी मृत्यू के पश्चात अलीबख्श से निकाह करके, धर्मपरिवर्तन करके उनका नाम इकबाल बानो हो गया. जब महज़बीं का जन्म हुआ तो इनके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी, इसलिये कहा जाता है कि उनके पिता ने इन्हें एक अनाथालय के बाहर छोड़ दिया था. पर तुरंत चींटियां इनके शरीर पर आ गयी और बच्ची रोने लगी तो पिता अली बख्श ने वह आवाज सुनी, खून ने पुकारा, हृदय को झकझोरा और वह वापस लौट आये और बच्ची को गोद में उठा लिया. एक बेहतरीन अदाकारा से हम महरूम न हुए.

मीना कुमारी यह नाम सुनते ही मस्तिष्क में एक चित्र उभरता है, गहरी आंखे मानो दो छलकते जाम, गदराया हुआ बदन, बेहतरीन संवाद अदायगी, वह मात्र एक बार में ही आखों से ही वह कह जाती थी जिसे कहने के लिये अन्य कलाकारों को अनेक दृष्य करने पड़ते. कहते हैं कि दिलीप कुमार भी उनके समक्ष असहज हो जाते थे. मीना कुमारी का जिक्र हो तो “साहब बीबी और गुलाम” फिल्म का नाम न हो तो कोई भी लेख अधूरा ही समझा जायेगा. यह फिल्म मीना कुमारी की अद्भुत अभिनय क्षमता का साक्षात प्रमाण है. मीना कुमारी मात्र एक अभिनेत्री नहीं थी वह गज़ब की शायर भी थी. कहा तो यह भी जाता है कि उनकी मृत्यु के पश्चात गुलज़ार ने उनकी डायरी चुरा ली थी. पर इसके विपरीत यह भी कहा जाता है कि गुलज़ार की शायरी से प्रभावित होकर दोनों एक दूसरे के नज़दीक आ गये व मीना कुमारी ने अपनी डायरी गुलज़ार को दी थी.

 मीना कुमारी के जीवन में एक अधूरापन था, इसलिये इसे पूर्ण करने के लिये उन्हें एक भावनात्मक सम्बंध चाहिये था. उस वक्त सिने जगत में सैयद अमीर हैदर कमल नकवी उर्फ कमाल अमरोही का नाम उच्चा शिखर पर था. इससे प्रभावित होकर लगभग 19 वर्ष की मीना कुमारी ने दो बीबियों व तीन बच्चों के पिता, लगभग 34 वर्ष के कमाल से परिवार की इच्छा के विरुद्द 14 फरवरी 1952 को निकाह कबूल कर लिया. पर यह रिश्ता रिसता गया. कमाल अमरोही मीना कुमारी की बढ़ती लोकप्रियता, प्रभाव से असहज थे. वह अपने विशेष विश्वास पात्रों को मीना कुमारी पर नज़र रखने के लिये नियुक्त किये हुए थे. जिससे मीना कुमारी बहुत आहत हुई. उनके मेकअप रूम में किसी पुरुष के जाने की मनाही कमाल अमरोही ने लगा दी. जब मीना कुमारी ने विरोध किया तो  कमाल अमरोही ने मीना कुमारी को भी तीन तलाक का शिकार बना दिया. अब उन्होंने विद्रोह स्वरूप अनेक पुरुषों से सम्बंध स्थापित कर लिये. जिनमें से धर्मेंद्र भी थे. कहा जाता है कि धर्मेंद्र जो प्रणय दृष्यों में असहज महसूस करते थे उन्हें मीना कुमारी ने ही अभिनय की बारीकियां समझाई और दोनों ही निकट आ गये. मीना कुमारी के साथ ही “फूल और पत्थर” से संघर्ष करते धर्मेंद्र सुपर स्टार बन गये. इसके अतिरिक्त दोनों शेर-ओ-शायरी करने लगे और शराब पीने के आदि हो गये क्योंकि मीना कुमारी तो पहले से ही कमाल अमरोही से दिल टूट जाने के बाद से सार्वजनिक रूप से भी शराब पीने लगी थी. उन्हें इसी कारण लीवर सिरोसिस नामक बिमारी हो गयी थी.

उनके लिखे चंद शेरों से लेख की समाप्ति करना चाहता हूँ जो उनके साहित्य सृजन व जीवन की व्यथा से परिचित कराते हैं:

चांद तन्हा है आसमां तन्हा,दिल मिला है कहाँ-कहाँ तन्हा!

बुझ गयी है आस, छुपा तारा, थरथराता रहा, धुआं तन्हा!!

और फिर “खुद में महसूस हो रहा है जो, खुद से बाहर है तलाश उसकी”.

बाहरी जगत, रजतपट की चकाचौंध, यश व अथाह धन, ऐश्वर्यशाली, विलासिता, भव्य अट्टालिकाओं के एक अतिरिक्त यहाँ की अंधेरी गलियों से अंजान है. इन्हीं अंधेरी गलियों में भटककर 31 मार्च, 1972 को, मात्र 38 वर्ष की उम्र में मीना कुमारी करोड़ों प्रशंसको के नेत्रों को अश्रुपूरित करते हुए, इस फ़ानी दुनिया से रुखसत हो गयी.

(विभिन्न स्रोतों से प्राप्त लेखों, चित्रों के लिये आभार सहित एक संकलन)
साभार : सुनीता सोलंकी 'मीना'

तनूजा

Thursday, December 9, 2021

धरम

जब मैं खुदा से मिलूंगा तो शिक़ायत करूंगा कि मुझे धर्मेंद्र जैसा हैंडसम क्यों नहीं बनाया :- 

आज 08 दिसंबर है । आज हरदिल अज़ीज एक्टर धर्मेंद्र ने 86 साल पूरे कर लिए। यानी आज उनका जन्मदिन है। धर्मेन्द्र जब साठ के दशक मे मुम्बई आये तो उस समय राज कपूर, दिलीप कुमार और देवानंद की तिकड़ी पर्दे पर राज किया करती थी। अशोक कुमार थे तो इनसे ऊपर लेकिन रोमांटिक हीरो नहीं थे। राजेंद्र कुमार जुबली कुमार कहलाते थे। 

धर्मेंद्र के शुरुआती दौर की एक फिल्म थी 'आई मिलन की बेला' ।लेकिन वो उसमें हीरो नहीं विलेन थे। फ़िल्म के पहले ही शो में आये लड़कियों  के समूह के मुंह से शब्द निकले - "हाय राम, यह तो हीरो से भी ज्यादा डैशिंग है।"

तब लोगों ने जाना कि धर्मेंद्र फिल्मफेयर और यूनाइटेड प्रोड्यूसर टैलेंट हंट की पैदाइश हैं। इसके बावजूद उन्हें फ़िल्में नहीं मिल रही थीं। उन्हें कहा गया, तू पहलवान दिखता है। जा अखाड़े में कुश्ती लड़। एक बार वो बेहोश हो गए। डॉक्टर ने कहा - कुछ नहीं हुआ इसे। भूखा है। कुछ खिलाओ। 

धर्मेंद्र की पहली फ़िल्म थी - "दिल भी तेरा हम भी तेरे।" फ़िल्म फ्लॉप हो गयी। लेकिन धर्मेन्द्र चल निकले।अनपढ़ , पूर्णिमा, मझली दीदी, काजल, मैं भी लड़की हूं, बंदिनी, पूजा के फूल, ममता, आपकी परछाईयां, अनुपमा जैसी अनेक नायिका प्रधान फिल्मों के हीरो बन गए। बात कुछ जम नहीं रही थी। 

''औरतों का हीरो' का तमगा मिलने ही वाला था कि राजेंद्र कुमार ने उन्हें 'आई मिलन की बेला' में विलेन का रोल दिलाया। लेकिन उलटे राजेंद्र कुमार की डैशिंग पर्सनाल्टी हीरो पर भारी पड़ गए धर्मेंद्र। लेकिन एक और मुसीबत , अब उनके पास विलेन के रोल आने शुरू हो गए। 

राजेंद्र कुमार फिर उनके काम आये। अपने बहनोई ओपी रल्हन की 'फूल और पत्थर' दिलाई। रल्हन को धर्मेंद्र से कोई नामालूम खुन्नस थी। वो उन्हें लेना नहीं चाहते थे।

लेकिन पैसा राजेंद्र कुमार का लगा था। फिर सारी खुदाई एक तरफ और जोरू का भाई एक तरफ। रल्हन सीधे-सीधे न भी नहीं कर सके। मीना कुमारी के सामने धर्मेंद्र को शर्ट उतारने का सीन करना था। धर्मेंद्र बिदक गए वो। मीना जी इतनी सीनियर आर्टिस्ट के सामने शर्ट उतारूं? ना बाबा ना। रल्हन तो मौका तलाश ही रहे थे उन्हें बाहर करने का। लेकिन राजेंद्र कुमार ने धर्मेंद्र को समझाया कि भावुक मत बनो। बताते हैं, मीना जी ने भी उन्हें क़सम दिलाई। तब जाकर धर्मेंद्र तैयार हुए। उन दिनों मीना और धर्मेंद्र के अंदर कुछ 'गुप-चुप' को लेकर चर्चायें भी बहुत थीं। 

बहरहाल, फूल और पत्थर सुपर हिट हुई। धर्मेंद्र 'ही मैन' बन गए। साडे पंजाब दा पुत्तर। इसके बाद धर्मेंद्र ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। स्टार बन गए वो। 'धरम जी' कहलाने लगे। कामयाबी सर चढ़ कर बोलने लगी। थोड़ा गरम होने लगे। 'धरम-गरम' हो गए। 288 फ़िल्में कर गए। 

धरमजी एक मात्र हीरो हैं जो रोमांटिक होने के साथ साथ ड्रामा, कॉमेडी और एक्शन के भी बादशाह रहे। हर फॉर्मेट में उन्हें देख कर ऐसा लगा, जैसे वो इसी के लिए बने हैं। उस दौर में बिमल राय, हृषिकेश मुख़र्जी, दुलाल गुहा, असित सेन, यश चोपड़ा, राज खोसला, बसु चैटर्जी, मनमोहन देसाई, प्रमोद चक्रवर्ती, रमेश सिप्पी आदि तमाम बड़े डाइरेक्टर्स के साथ काम किया। तुम हसीं मैं जवां, शोले, सीता और गीता, प्रतिज्ञा, नया ज़माना, शिकारी, ब्लैकमेल, राम बलराम, शालीमार, चुपके चुपके, आज़ाद, जुगनू, राजा जानी, शराफ़त, दो चोर, दोस्त, धर्मवीर, चाचा-भतीजा, चरस, आंखें, ललकार, आदमी और इंसान, कातिलों का कातिल, मेरा गांव मेरा देश, दो चोर आदि बेशुमार हिट फ़िल्में की। हृषिकेश मुखर्जी की 'सत्यकाम' हिट तो नहीं हुई, लेकिन अच्छी और सार्थक फिल्म देखने वाले वर्ग में सराही बहुत गयी। मैं इसे धरम जी की श्रेष्ठ फिल्मों में गिनता हूँ। 

बहुतों को हज़म नहीं हुआ, धर्मेंद्र ने जब दो शादियां की। पहली शादी 1954 में तब हुई जब वो महज़ 19 साल के थे और दूसरी शादी 1980 में हेमा मालिनी के साथ।  आप हीरो हो, आपसे आदर्श स्थापित करने की अपेक्षा की जाती है। धरम जी ने दिल तोड़ दिया। बहरहाल, हेमा के साथ उन्होंने दो दर्जन से ज्यादा फ़िल्में की। ज्यादातर हिट रहीं इसमें। 

उन्हें भारत सरकार ने पद्मभूषण से सम्मानित किया है। 1970 में वो दुनिया के हैंडसम पर्सन चुने गए। फ़िल्मी दुनिया में आये धरम जी को छप्पन साल हो चुके हैं। पता ही नहीं चला, वो कब धरम जी से धरम पा'जी हो गए। 

धरम पा'जी को ज़िंदगी भर मलाल रहा कि कई बार नॉमिनेट होने के बावजूद उन्हें फिल्मफेयर का बेस्ट एक्टर अवार्ड नहीं मिला। लेकिन 1997 में उनकी यह ख्वाईश पूरी हुई। लेकिन उन्होंने एक शर्त रख दी, अवार्ड लूंगा तो अपने महबूब और आदर्श अदाकार दिलीप कुमार के हाथों से। और उनकी ये शर्त पूरी हुई। फ़िल्मफ़ेयर का लाईफ़टाईम अचीवमेंट अवार्ड देते हुए दिलीप कुमार ने कहा - जब मैं खुदा से मिलूंगा तो शिक़ायत करूंगा कि मुझे धर्मेंद्र जैसा हैंडसम क्यों नहीं बनाया?

 फिल्म प्रतिज्ञा का यह सुपर डुपर हिट गीत । इसे गाया है मोहम्मद रफी ने । लिखा है आनंद बक्शी ने और संगीत से सजाया है लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने । यह गाना आज भी धर्मेंद्र का ट्रेडमार्क गीत माना जाता है ।

मैं जट यमला पगला दीवाना
हो रब्बा इत्ती सी बात ना जाना
के के के, ओ मैनू प्यार करती है
साडे उत्ते ओ मरदी है

Pratiggya //  Md Rafi

#भूलेबिसरेनगमे #भूलेबिसरेगीत #MdRafi

रागिनी पद्मिनी

नादिरा दीप्ति

करिश्मा नन्ही

मुंगेरीलाल के हसीन सपने

“मुंगेरीलाल के हसीन सपने (1989)”

अचेतन मन में जब दमन की गई इच्छाएं होती हैं और समाज की नियमावली या स्वयं की अक्षमता के कारण कोई मनुष्य अपनी इच्छाएं दबा लेता है, तो वे मरती नहीं। स्वप्न में मस्तिष्क उन अतृप्त कामनाओं की पूर्ति करवाता है। महान ऑस्ट्रियन मनोवैज्ञानिक सिग्मंड फ़्रॉयड ने इसे Wunscherfullung कहा, जिसे अंग्रेज़ी में wish fulfillment  भी कहते हैं। इस मनोवैज्ञानिक तथ्य का प्रयोग हास्य प्रस्तुति में कर पाना, कलात्मकता के शिखर पर ही संभव है और इस प्रयोग के सफलता के बारे में शंका का बना रहना भी स्वभाविक है। लेकिन ऐसी सभी शंकाओं को दरकिनार करते हुए दूरदर्शन ने इस प्रयोग के प्रस्तुति की सहमति दी और अपनी कहानी नीरज कुमार ने पूरे भारत को सुनाई, इस कहानी का नाम था, “मुंगेरीलाल के हसीन सपने” और ये साल था, 1989

“मुंगेरीलाल के हसीन सपने” दूरदर्शन पर धारावाहिक के रूप में प्रसारित किया गया। ये धारावाहिक, तत्कालीन समाज पर करारा व्यंग्य था और इसके मुख्य पात्र थे रघुबीर यादव (मुंगेरीलाल), जो कि बिहार के मुंगेर ज़िले से रोज़गार के सिलसिले में दिल्ली आ बसे थे।  रघुबीर यादव (मुंगेरीलाल), तीन विषयों ( साहित्य, संस्कृत और दर्शनशास्त्र में M.A. थे, और उन्हें कोई ढंग की नौकरी नहीं मिली थी। प्रतिभाओं के हनन पर ये खड़ा व्यंग्य प्रहार था। इनके ससुर बजरंगीलाल (प्यारे मोहन सहाय) ने सिफ़ारिश से, इनकी नौकरी, वानर छाप वनस्पति कंपनी में लगा दी। यहाँ भी इनका शोषण होता रहा या ये कहना भी ठीक होगा कि ये शोषण करवाते रहे।

“शोषित जब प्रतिकार नहीं कर पाता, तो उसके पास काल्पनिक प्रतिशोध के अलावा और कोई रास्ता ही नहीं बचता। यही, मुंगेरीलाल का भी रास्ता था। अपने ऊपर हो रहे व्यवहार का प्रतिशोध वे अपने सपनों में लेते थे और उनकी कनखियों के साथ वे सपनों की दुनिया में प्रवेश पा जाते थे। इनके हर सपने में, इनके ससुर, इनकी पत्नी, इनकी कम्पनी का मालिक और ऑफिस के सारे लोग होते थे, जिनपर ये सवार होकर, उन्हें दंडित करते थे। सपनों में सफलता का पूर्ण स्वाद चखने के पहले ही इनकी पत्नी इनके सपने तोड़ देती थीं।”

इसका शीर्षक गीत, अशोक चक्रधर और नीरज कुमार ने बनाया था और बड़े सीधे बोल थे, “सपनों के दाम नहीं, सपनों के नाम नहीं, सपनों के घोड़ों पर किसी का लगाम नहीं।” इस धारावाहिक में कला निर्देशन प्रभात झा ने किया था। पटकथा और संवाद, मनोहर श्याम जोशी ने लिखा था और संपादन और निर्देशन, प्रकाश झा ने किया था।

रघुबीर यादव और प्यारे मोहन सहाय के अलावा, रूमा घोष और कामिया मल्होत्रा का भी सधा हुआ अभिनय था। इस धारावाहिक के कुल 52 एपिसोड प्रसारित किए गए।
हर जगह अक्षम और दुर्बल व्यक्ति प्रताड़ना सहता है और प्रतिरोध नहीं कर पाता। मुंगेरीलाल सपने देखता था और प्रतिशोध (काल्पनिक) लेता था लेकिन अपनी ज़िम्मेदारियों से बंधा हुआ, अपना जीवन चुपचाप जीता था।  आज के दौर के लोग इन कल्पनाओं की प्रस्तुति सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर करते हैं और अपनों के बीच इन कल्पनाओं को कहते भी हैं और इनकी मान्यता बनाए रखने के लिए कई अभ्यास भी करते हैं। सब स्थितियां यथावत बनी हुई हैं आज भी, बस कुंठा और झूठ थोड़ा ज़्यादा बढ़ गया है।

“मुंगेरीलाल के हसीन सपने”, उस समय की निश्छल दुनिया और सादा जीवन दिखाने वाला एक अविस्मरणीय धारावाहिक है.....

Wednesday, December 8, 2021

धर्मेंद्र

᯽Happy Birthday Dharmendra: बॉलीवुड के ‘हीमैन’ कहे जाने वाले अभिनेता धर्मेंद्र (Dharmendra Birthday) आज अपना 86वां जन्मदिन मना रहे हैं. शानदार अभिनय और अपने अलग अंदाज से फैंस का दिल जीत चुके धर्मेंद्र अपनी निजी जिंदगी को लेकर भी जबरदस्त चर्चाओं में रहे हैं. धर्मेंद्र बॉलीवुड के भी फेवरिट हैं. चाहे सलमान खान हो या बॉलीवुड का कोई और स्टार, हर पीढ़ी धर्मेंद्र की फैन है. उनके जैसा पंजाबी और गबरू हीरो उस समय में कोई और नहीं था.
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✈︎धर्मेंद्र ने अपने समय में जबरदस्त स्टारडम देखा और उनकी निजी जिंदगी भी खुली किताब की तरह रही है. उन्होंने अपने करियर की बुलंदियों के दौरान कभी मीडिया से और अपने फैंस से कभी कुछ छिपाने की कोशिश नहीं की. धर्मेंद्र की जिंदगी के कई ऐसी दिलचस्प कहानियां हैं जो शायद आपको भी नहीं पता होंगी. धर्मेंद्र और हेमा मालिनी (Hema Malini) की लव स्टोरी किसी फिल्म की कहानी से कम नहीं थी. उस दौर में ड्रीम गर्ल हेमा के लाखों दीवाने थे जो उनसे शादी तक करना चाहते थे....

❥︎धर्मेंद्र ने तोड़ी हेमा की शादी➪
एक वक्त था जब हेमा की शादी अभिनेता जीतेंद्र से होने वाली थी. लेकिन तभी धर्मेंद्र की एक फोन कॉल से कुछ ऐसा हुआ कि ये शादी टूट गई. एक समय ऐसा भी था जब जितेंद्र भी हेमा के प्यार में गिरफ्तार हो चुके थे, और उन्होंने अपने प्यार का इजहार कर डाला. जितेंद्र के इस प्रस्ताव को लेकर हेमा सोचने पर मजबूर हो गईं. उस दौर में वो धर्मेंद्र के साथ अपने रिश्ते को लेकर काफी तनाव में थीं. दोनों सितारों के घरवाले बात ही कर रहे थे, कि धर्मेंद्र का फोन आया और उन्होंने हेमा को गुस्से में कहा कि वो कोई भी फैसला लेने से पहले एक बार उनसे मिलें.

✈︎सीधे हेमा के घर पहुंचे धर्मेंद्र➪
हेमा इस फोन के बाद सोच में पड़ गईं. हेमा की हालत देखकर जितेंद्र को ये लगा कि कहीं हेमा अपना फैसला ना बदलें, इसलिए उन्होंने तिरुपति मंदिर में जाकर शादी करने का फैसला किया. कहा तो ये भी जाता है कि धर्मेंद्र अगली फ्लाइट से सीधे हेमा के घर चेन्नई जा पहुंचे. हेमा से शादी करने का जितेंद्र का अरमान अधूरा रह गया और आखिरकार 1976 में जितेंद्र ने अपनी गर्लफ्रेंड शोभा से शादी कर ली. तो ऐसे पूरी हुई हमारे हेमा और उनके धरम जी की लव स्टोरी.

✈︎धर्म बदलकर की हेमा मालिनी से शादी➪
धर्मेंद्र ने हेमा मालिनी से धर्म बदलकर शादी की थी. शादी के बाद लोगों को पता चला कि धर्मेंद्र और उनकी चहेती हेमा मालिनी ने धर्म बदलकर शादी की है. कहा जाता है कि धर्मेंद्र की पहली पत्नी ने उन्हें तलाक देने से मना कर दिया था इसलिए दोनों ने धर्म बदलकर शादी की थी. दोनों ने अपना नाम आयशा और दिलावर रखा था.

✈︎धर्मेंद्र ने धर्म बदलकर हेमा मालिनी से शादी की थी...
1954 में की थी पहली शादी
वर्ष 1954 में उनकी शादी गांव की सीधी साधी प्रकाश कौर से तभी हो गई थी, जब वह 19 साल के थे. इसके बाद किस्मत उन्हें बॉलीवुड ले गई. वह 60 के दशक में रूपहले पर्दे के सबसे खूबसूरत औऱ गबरू जवान थे, जिस पर देश की लड़कियां दिलोजान न्योछावर करती थीं. वह फिल्में कर रहे थे. जल्दी-जल्दी उनके गर्लफ्रेंड बदलने की खबरें आती थीं. प्रकाश कौर ये सब जानते हुए भी उन दिनों पंजाब के गांव में रहती थीं. शादी के बाद धर्मेंद्र के चार बच्चे हुए.

शोले

यंग तनूजा

यंग धरम

अमर मूवी दृश्य