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Saturday, December 11, 2021

प्रदीप

कवि प्रदीप 'ऐ मेरे वतन के लोगों' सरीखे देशभक्ति गीतों के लिए जाने जाते हैं। यूँ तो कवि प्रदीप ने प्रेम के हर रूप और हर रस को शब्दों में उतारा, लेकिन वीर रस और देश भक्ति के उनके गीतों की बात ही कुछ अनोखी थी। आज उनकी पुण्यतिथि (11 दिसंबर 1998) पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि ~

कवि प्रदीप का जन्म 6 फ़रवरी 1915 में मध्य प्रदेश में उज्जैन के बड़नगर नामक क़स्बे में हुआ था। प्रदीप जी का मूल नाम 'रामचंद्र नारायण द्विवेदी' था। इनके पिता का नाम नारायण भट्ट था। शुरुआती शिक्षा इंदौर के 'शिवाजी राव हाईस्कूल' में हुई, जहाँ वे सातवीं कक्षा तक पढ़े। इसके बाद की शिक्षा इलाहाबाद के दारागंज हाईस्कूल में संपन्न हुई। इसके बाद इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की। दारागंज उन दिनों साहित्य का गढ़ हुआ करता था। वर्ष 1933 से 1935 तक का इलाहाबाद का काल प्रदीप जी के लिए साहित्यिक दृष्टीकोंण से बहुत अच्छा रहा। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक की शिक्षा प्राप्त की एवं अध्यापक प्रशिक्षण पाठ्‌यक्रम में प्रवेश लिया। विद्यार्थी जीवन में ही हिन्दी काव्य लेखन एवं हिन्दी काव्य वाचन में उनकी गहरी रुचि थी। कवि प्रदीप का विवाह मुम्बई निवासी गुजराती ब्राह्मण चुन्नीलाल भट्ट की पुत्री सुभद्रा बेन से 1942 में हुआ था।

वर्ष 1939 में लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक तक की पढ़ाई करने के बाद कवि प्रदीप ने शिक्षक बनने का प्रयास किया, लेकिन इसी दौरान उन्हें मुंबई में हो रहे एक कवि सम्मेलन में हिस्सा लेने का न्योता मिला। कवि सम्मेलन में उनके गीतों को सुनकर 'बाम्बे टॉकीज स्टूडियो' के मालिक हिंमाशु राय काफ़ी प्रभावित हुए और उन्होंने प्रदीप को अपने बैनर तले बन रही फ़िल्म ‘कंगन’ के गीत लिखने की पेशकश की। इस फ़िल्म में अशोक कुमार एवं देविका रानी ने प्रमुख भूमिकाएँ निभाई थीं। 1939 में प्रदर्शित फ़िल्म 'कंगन' में उनके गीतों की कामयाबी के बाद प्रदीप बतौर गीतकार फ़िल्मी दुनिया में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। इस फ़िल्म के लिए लिखे गए चार गीतों में से प्रदीप ने तीन गीतों को अपना स्वर भी दिया था। इस प्रकार ‘कंगन’ फ़िल्म के द्वारा भारतीय हिंदी फ़िल्म उद्योग को गीतकार, संगीतकार एवं गायक के रूप में एक नयी प्रतिभा मिली। सन 1943 में मुंबई की 'बॉम्बे टॉकीज' की पांच फ़िल्मों- ‘अंजान’, ‘किस्मत’, ‘झूला’, ‘नया संसार’ और ‘पुनर्मिलन’ के लिये भी कवि प्रदीप ने गीत लिखे। छद्म नाम से गीत लेखन 'फ़िल्मिस्तान' फ़िल्म निर्माण संस्था से अनुबंधित होने पर भी आंतरिक राजनीति के कारण कवि प्रदीप से गीत नहीं लिखाए जा रहे थे। इससे दु:खी होकर वे 'मिस कमल बी.ए.' के छद्म नाम से गीत लिखने लगे। उन्होंने चार फ़िल्मों के लिए इसी नाम से गीत लिखे।

प्रदीप का वास्तविक नाम रामचन्द्र नारायण दिवेदी था, किन्तु एक बार हिमांशु राय ने कहा कि ये रेलगाड़ी जैसा लम्बा नाम ठीक नही है, तभी से उन्होंने अपना नाम प्रदीप रख लिया। प्रदीप नाम के पीछे उनके जीवन का एक रोचक प्रसंग भी है। उन दिनों मुम्बई में अभिनेता और कलाकार प्रदीप कुमार भी प्रसिद्ध हो रहे थे, जिस कारण अक्सर गलती से डाकिया कवि प्रदीप की चिठ्ठी अभिनेता प्रदीप के पते पर डाल देता था। डाकिया सही पते पर पत्र दे, इस वजह से उन्होंने प्रदीप के पहले 'कवि' शब्द जोड़ दिया और यहीं से कवि प्रदीप के नाम से वे प्रख्यात हुए।

फिर बॉम्बे टॉकीज छोड़ ‘फ़िल्मिस्तान’ से जुड़े पर यह निर्णय प्रदीप पर भारी पड़ा। ‘फ़िल्मिस्तान’ की पहली फ़िल्म ‘चल-चल रे नौजवान’ (1944) थी। जितनी आशा थी, उतनी न फ़िल्म चली और न ही इसके गाने। इस फ़िल्म के लिए प्रदीप ने बारह गीत लिखे थे। फ़िल्म के असफल होने पर इस संस्था में भी राजनीति आ गई। उन्होंने प्रदीप को अलग-थलग कर दिया और गाने लिखाने बंद कर दिये गए। प्रदीप फ़िल्मिस्तान से हुए कॉन्ट्रेक्ट से बंधे थे। वेतन मिल रहा था, किंतु काम नहीं। प्रदीप के कोमल मन पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा। वे नहीं चाहते थे कि उनकी कलम कुंठित हो जाए। अत: अपनी आत्मा की आवाज़ के विरुद्ध ‘मिस कमल बी.ए.’ के नकली नाम से बाहर की फ़िल्मों के लिए गीत लिखने लगे। ‘लक्ष्मी प्रोडक्शंस’ की तीन फ़िल्में- ‘कादम्बरी’ (1944), ‘सती तोरल’ (1947), ‘वीरांगना’ (1947) तथा मुरली मूटीटोन की एक फ़िल्म ‘आम्रपाली’ (1945) के गीत लिखे। इस बीच फ़िल्मिस्तान ने प्रदीप से 1946 में ‘शिकारी’ फ़िल्म के लिए गीत लिखवा लिए। इन फ़िल्मों के गीतों में साहित्यिकता भले ही हो, पर पहले जैसी लोकप्रियता का तत्त्व कहीं खो गया था। 'मिस कमल बी.ए.' के नकली नाम से लिखते-लिखते और फ़िल्मिस्तान की राजनीति से प्रदीप ऊब चुके थे। अत: उन्होंने फ़िल्मिस्तान से अलग होकर, अपने सहयोगियों की मदद से ‘लोकमान्य प्रोडक्शंस’ नामक फ़िल्म निर्माण संस्था बनाई। 1949 में पहली फ़िल्म आई ‘गर्ल्स स्कूल’, जिसमें प्रदीप के नौ गाने थे। सी. रामचंद्र और अनिल विश्वास जैसे संगीतकारों का निर्देशन, लता मंगेशकर और शमशाद बेगम का गायन भी कोई करिश्मा नहीं कर पाया। कवि प्रदीप समझ गए कि फ़िल्म कम्पनी चलाना उनके बस की बात नहीं है, क्योंकि इससे उनकी मुख्य धारा कुंठित हो रही थी। अत: वे 'लोकमान्य प्रोडक्शंस' से अलग हो गए और फिर स्वतंत्र रूप से लिखने लगे। 'बॉम्बे टॉकीज' ने इस अवसर का लाभ उठाया और अपनी फ़िल्म ‘मशाल’ (1950) के लिए उनसे सात गीत लिखवाए। इस परिवर्तन का कारण यह था कि बॉम्बे टॉकीज का काम सावक वाचा के साथ अशोक कुमार देख रहे थे, जो प्रदीप से पहले से ही काफ़ी प्रभावित थे। सचिन देव बर्मन ने अच्छी धुनें बनाईं और गीत चल निकले। प्रकृति की महानता को उजागर करने वाले इस फ़िल्म के एक गीत ने पूरे भारत में ख्याति अर्जित की। गीत था- ‘ऊपर गगन विशाल, नीचे गहरा पाताल।‘ ‘सती तोरल’ और ‘कादम्बरी’ के गीत गा चुके मन्ना डे ने लिखा था- "मैं तो प्रदीप जी ऋणी हूँ और जन्म भर रहूँगा, क्योंकि मुझे सर्वप्रथम लोकप्रियता प्रदीप जी के गीत ‘ऊपर गगन विशाल’ ने ही दी है।" गीतकार शैलेंद्र ने उनसे कहा- "प्रदीप जी, ऐसा और इस कोटि का गीत केवल आप ही लिख सकते हैं।" 'फ़िल्मिस्तान कम्पनी' के शशधर मुखर्जी प्रदीप की कलम का जादू जानते थे। अपनी सामाजिक फ़िल्म ‘नास्तिक’ (1945) के सभी नौ गीत प्रदीप से लिखवाए। सभी गीत लोकप्रिय हुए और फ़िल्म हिट हो गई। प्रदीप के अंदर बैठे साहित्यकार को मुखर होने और गीतों में नये प्रयोग करने का अवसर मिला। दु:ख में ईश्वर याद आता है, उसी से फ़रियाद करते हुए लिखा और गाया- "देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान! कितना बदल गया इंसान।" इस गीत ने लोकप्रियता की बुलन्दियों को छू लिया। लता जी आमतौर पर मुजरा नहीं गाती हैं, परंतु इस गीत के लिए प्रदीप का लिखा मुजरा शालीन था, अत: उन्होंने खुशी से गाया- ‘कैसे आए हैं दिन हाय अंधेर के, बैठे बलमा हमारे नज़र फेर के'।मुजरों में आमतौर पर अश्लीलता परोसी जाती थी। श्रृंगार में अश्लीलता से बचना प्रदीप जानते थे। इसी फ़िल्म में उनके एक अन्य गीत को लता मंगेशकर ने गया- ‘होने लगा है मुझपे जवानी का असर। झुकी जाए नज़र ...।‘ इस फ़िल्म के गीतों का पहला एल.पी. रिकॉर्ड बना था।

'ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी' साठ के दशक में चीनी आक्रमण के समय लता मंगेशकर द्वारा गाया गया था। यह गीत कवि प्रदीप द्वारा लिखा गया था। कौन-सा सच्चा हिन्दुस्तानी इसे भूल सकता है? इस गीत के कारण 'भारत सरकार' ने कवि प्रदीप को ‘राष्ट्रकवि’ की उपाधि से सम्मानित किया था। और प्रदीप ने यह लिखकर दिया था कि- "ऐ मेरे वतन के लोगों" गीत से मिलने वाली रॉयल्टी की राशि शहीद सैनिकों की विधवा पत्नियों को दी जाए।" प्रदीप ने ‘नास्तिक’ एवं ‘जागृति’ फ़िल्मों के लिए जो गीत लिखे, स्वयं उन्होंने ही उन्हें गाया भी था। उससे सामाजिक विघटन की एक झलक मिलती है- ‘देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान, कितना बदल गया इंसान। चांद न बदला सूरज न बदला, कितना बदल गया इंसान।।’ 'पैगाम' फ़िल्म के लिए कवि प्रदीप का लिखा गीत ‘इंसान का इंसान से हो भाईचारा यही पैगाम हमारा’ यह गाना भी काफ़ी लोकप्रिय हुआ था। अपने गीतों के बलबूते पर बॉक्स ऑफिस पर रिकार्ड तोड़ व्यवसाय करने वाली फ़िल्म थी ‘जय संतोषी मां’, जो कवि प्रदीप के जीवन में एक अविस्मरणीय यशस्वी फ़िल्म का उदाहरण बनी थी। इस फ़िल्म में कोई नामचीन कलाकार नहीं था, परंतु कवि प्रदीप के छहों भक्ति प्रधान गीतों ने फ़िल्म को सुपरहिट कर दिया। कुछ गीतों की बानगी इस प्रकर है- ‘मैं तो आरती ऊतारूँ रे संतोषी माता की’, ‘यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ मत पूछो कहाँ-कहाँ, है संतोषी माँ’, ‘करती हूँ तुम्हारा व्रत में स्वीकार करो माँ’।

समाज की बिगड़ती दशा को देखकर उनकी अंतरआत्मा ईश्वर से कहती है कि "देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान कितना बदल गया इंसान।" सामाजिकता की भावना से ओतप्रोत होकर विश्वबंधुत्व की भावना में उन्होंने लिखा था- "इंसान से इंसान का हो भाई चारा, यही पैगाम हमारा, संसार में गूँजे समता का इकतारा, यही पैगाम हमारा"। गायक के रूप में उनकी लोकप्रियता का माध्यम बना `जागृति' फ़िल्म का गीत जिसके बोल हैं - "आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की"। संगीत निर्देशक हेमंत कुमार, सी. रामचंद्र, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल आदि ने समय-समय पर कवि प्रदीप के लिखे कुछ गीतों का उन्हीं की आवाज में रिकॉर्ड किया। `पिंजरे के पंछी रे तेरा दर्द न जाने कोय', `टूट गई है माला मोती बिखर गए', कोई लाख करे चतुराई करम का लेख मिटे न रे भाई', जैसा भावना प्रधान गीतों को बहुत आकर्षक अंदाज में गाकर कवि प्रदीप ने फ़िल्म जगत् के गायकों में भी अपना अलग ही महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया था, एक गीत यद्यपि कवि प्रदीप ने स्वयं गाया नहीं था, लेकिन उनकी लिखी इस रचना ने ब्रिटिश शासकों को हिला दिया था, जिसके बोल हैं- आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है। 

कवि प्रदीप को अनेक सम्मान प्राप्त हुए थे, जिनमें 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार' (1961) तथा 'फ़िल्म जर्नलिस्ट अवार्ड' (1963) शामिल हैं। यद्यपि साहित्यिक जगत् में प्रदीप की रचनाओं का मूल्यांकन पिछड़ गया तथापि फ़िल्मों में उनके योगदान के लिए भारत सरकार, राज्य सरकारें, फ़िल्मोद्योग तथा अन्य संस्थाएँ उन्हें सम्मानों और पुरस्कारों से अंलकृत करते रहे। उन्हें सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मी गीतकार का पुरस्कार राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद द्वारा दिया गया। 1995 में राष्ट्रपति द्वारा ‘राष्ट्रकवि’ की उपाधि दी गई और सबसे अंत में, जब कवि प्रदीप का अंत निकट था, फ़िल्म जगत् में उल्लेखनीय योगदान के लिए 1998 में भारत के राष्ट्रपति के.आर. नारायणन द्वारा प्रतिष्ठित ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ दिया गया। सुश्री मितुल जब अपने बीमार पिता प्रदीप को पहिया कुर्सी पर बिठाकर मंच की ओर बढ़ रही थीं तो हॉल में ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालों’ गीत बज रहा था। सभी उपस्थित जन अपनी जगहों पर खड़े हो गए थे। उनकी आँखों में आँसू थे। राष्ट्रपति ने पहले प्रदीप के स्वास्थ्य के बारे में पूछा और फिर पुरस्कार प्रदान किया। जब वे लौटने लगे तो दूसरा गीत बज उठा ‘हम लाए हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के’ लोग अब भी खड़े थे और तालियाँ बजाये जा रहे थे। कवि प्रदीप का हर फ़िल्मी-ग़ैर फ़िल्मी गीत अर्थपूर्ण होता था और जीवन को कोई न कोई दर्शन समझा जाता था। खेद का विषय यह है कि ऐसे महान् देश भक्त, गीतकार एवं संगीतकार को भारत सरकार ने ‘भारत रत्न’ से सम्मानित नहीं किया।

कवि प्रदीप ने अपने जीवन में 1700 गाने लिखे। ‘बंधन’ के अपने गीत ‘रुक न सको तो जाओ तुम’ को यथार्थ करते हुए 11 दिसंबर 1998 को राष्ट्रकवि प्रदीप का कैंसर से लड़ते हुए 83 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उनके निधन के समाचार से स्तब्ध हुए लोगों का सैलाब विले पार्ले स्थित उनके आवास ‘पंचामृत’ की ओर उमड़ पड़ा था। अर्थी उठी तो ‘पं. प्रदीप अमर रहें’ के समवेत उद्घोष से पूरा इलाका थर्रा गया। संगीत निर्देशक सचिन देव बर्मन ने उनके गीत, उनका गायन और स्वर संयोजन देखकर कहा था कि- “तुम्हें कोई ‘आउट’ नहीं कर सकता।“ प्रदीप मर कर भी आउट नहीं हुए हैं। वे अब अपने गीत की पंक्तियों में अमर हैं।

साभार : भारतकोष

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