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Saturday, December 11, 2021

दिलीप कुमार

मोहम्मद यूसुफ़ ख़ान उर्फ 'दिलीप कुमार' साहब अभी चंद महीने पहले हमसे जुदा हुये। उनके मरणोपरांत आज उनकी पहली (11 दिसंबर 1922) जयंती पर उन्हें याद करते हुए उन्हें ख़िराज ए अक़ीदत ~

दिलीप साहब ने उम्र का ही नहीं बल्कि अभिनय का भी एक लंबा सफर तय किया। और अपनी एक अलग ही अभिनय शैली विकसित की। उन्हें फ़िल्म इंडस्ट्री का 'ट्रेजेडी किंग' कहा गया। और हर बड़े सम्मान व पुरुस्कार से नवाजा गया। उन्होंने फ़िल्म ज्वारभाटा (1944) से अपना सफर शुरू किया। फ़िल्म जुगनू (1947) में कामयाबी पाई। और आखरी बार फ़िल्म किला (1998) में दिखे।

आज उनकी जयंती पर आपके समक्ष फ़िल्मों के कुशल अभिनेता 'आशुतोष राणा' जी का लिखा वो लेख हूबहू रख रहा हूँ। जो उन्होंने दिलीप साहब के देहावसान वाले दिन लिखा था।

•॥#नटसम्राट॥• 
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किसी भी अभिनेता को यदि प्रभावशाली होना है तो भाषा पर उसका अधिकार होना चाहिए महानायक युग की शुरुआत करने वाले श्रद्धेय सर दिलीप कुमार साहब वैसे ही कलासाधक थे जिन्होंने भाषा-भाव को सिद्ध किया हुआ था, उनके मुँह से निकलने वाले शब्द दर्शकों को मात्र सुनाई ही नहीं देते थे बल्कि दिखाई भी देते थे। 

मैं जैसे-जैसे बड़ा होता गया और जब यह निश्चित हो गया की अभिनय ही मेरे जीवन का मार्ग बनाने वाला है तब श्रद्धेय दिलीप कुमार साहब के अभिनय को देखकर मुझे यह शिक्षा मिली की- अभिनेता के मुँह से निकलने वाले शब्द दिखाई देने चाहिए और अभिनेता के द्वारा लिया गया पॉज़ ( सन्नाटा ) दर्शक को सुनाई देने चाहिए तभी वह अभिनेता और उसके द्वारा अभिनीत चरित्र दर्शकों की चिरस्मृति में स्थान प्राप्त कर सकता है। किंतु हम आज के अभिनेता अक्सर इसका उल्टा करते हैं, हमारी कोशिश होती है की शब्द सुनाई पड़े और सन्नाटा दिखाई दे। इसलिए हमारा अभिनय महज़ क्राफ़्ट तक ही सिमटकर रह जाता है वह कला के पायदान पर नहीं पहुँच पाता। 

श्रद्धेय सर दिलीप कुमार साहब से जुड़ा एक वाक़या जिसने मेरी सिनेमाई यात्रा में पथप्रदर्शक का कार्य किया उसे आप मित्रों से साझा कर रहा हूँ। 

मेरी फ़िल्म दुश्मन रिलीज़ हुई, मेरे किरदार को बहुत सराहना मिली, मुझे बेस्ट ऐक्टर इन नेगेटिव रोल के लिए फ़िल्म फ़ेयर से लेकर लगभग सारे अवॉर्ड्स मिले। रातों रात गुमनाम सा आशुतोष एक नाम वाले आशुतोष राना में बदल गया, मैं फ़िल्मी जलसों में बुलाया जाने लगा, ऐसे ही एक जलसे में अचानक सर दिलीप कुमार साहब से मेरी मुलाक़ात हो गई। 

जिनका अभिनय देखकर हम बड़े हुए हों, जिनको हमने अभी तक मात्र रूपहले पर्दे पर ही देखा हो, जिनकी कला के आप आत्मा से प्रशंसक हों, जिनकी कला आपके लिए प्रेरणा का कार्य करती हो जब वह शख़्सियत वास्तविक जीवन में अचानक आपके सामने उपस्थित हो जाए तो आपके होश उड़ जाते हैं। मैं एक पल भी गँवाए बिना रोमांचित, सम्मोहित सा उनके पास गया झुककर उनके चरण स्पर्श किए और अभिभूत कंठ से अपना परिचय उन्हें देते हुए बोला- सर, मेरा नाम आशुतोष राना है। मैं नवोदित अभिनेता हूँ, मैंने हाल ही में दुश्मन नाम की एक फ़िल्म की है जिसे महेश भट्ट सर और मुकेश भट्ट सर की विशेष फ़िल्मस ने प्रोडयूस किया है, तनुजा चंद्रा इसकी निर्देशक हैं। 

वे आँखों में किंचित मुस्कान लिए बहुत धैर्यपूर्वक मुझे देख और सुन रहे थे, फिर बहुत स्नेह से मेरा हाथ अपने हाथ में थामते हुए बोले- बर्खुरदार, मैंने आपका काम देखा है..आपके हुनर से इत्तफ़ाक़ भी रखता हूँ, इसलिए आपको एक मशविरा देना चाहता हूँ। 

जो अभिनेता नहीं स्वयं अभिनय हैं ऐसे सर दिलीप कुमार साहब मेरा हाथ थामे हुए मुझे सराह रहे हैं, सलाह देना चाहते हैं, उन्होंने मेरा काम देखा हुआ है ! यह सुनकर मेरे घुटनों में कंपकपी होने लगी, मेरी नाभि के पास से एक लहर सी उठी, मुझे लगा जैसे मेरे सिर के बाल खड़े हो गए हैं। 

वे मेरी मन:स्थिति को भली भाँति समझ रहे थे उन्होंने मुझे सहज करते हुए जो कुछ कहा वह मेरे आगे के जीवन, मेरी अभिनय यात्रा का मूल मंत्र बन गया, वे बोले- बर्खुरदार चाहे दिलीप कुमार हो या आशुतोष राना, हम सभी अभिनेता खिलौना बेचने वाले जैसे होते हैं। हम सभी के पास एक निश्चित संख्या में खिलौने होते हैं। अब ये तुम्हारे ऊपर निर्भर करता है की तुम अपने सभी खिलौनों को सिर्फ़ पाँच साल में बेंचकर अपनी दुकान बंद कर लेते हो, या तुम एकदम से नहीं बल्कि धीरे-धीरे अपने पास के खिलौनों को पचास साल तक लगातार बेचते रहते हो। दिलीप कुमार को दुनिया से इसलिए बेशुमार प्यार मिला क्योंकि दिलीप कुमार ने बहुत धीरे-धीरे क़रीब पचास-पचपन साल तक अपने खिलौनों को बेचा है। तुम काम जानते हो इसलिए मेरा मशविरा है की जल्दबाज़ी मत करना, बहुत जतन से काम करना, किसी दौड़ का हिस्सा मत बनाना। हो सकता है बीच में तुम्हारे पास बिलकुल भी काम ना हो, कुछ काम तुम्हारे हाथ से छूट जाएँ लेकिन तुम जगह मत छोड़ना। अपनी चाल चलना और दुनिया से कहना- “मेरे पैरों में घुँघरू बंधा दे और फिर मेरी चाल देख ले।” ये कहते हुए उन्होंने स्नेह से मेरे सिर को सहलाया और चले गए। 

आज इस संयोग पर आश्चर्य होता है की मुझे सलाह देते हुए गाने की जो पंक्ति उन्होंने बोली थी वह उनकी फ़िल्म “संघर्ष” का गाना था और मुझे भी “संघर्ष” नाम की एक फ़िल्म करने का सौभाग्य प्राप्त है। 

श्रद्धेय दिलीप साहब ने जो कहा वह सिर्फ़ अभिनेताओं लिए ही नहीं बल्कि हर सृजनशील व्यक्ति के काम का है। यदि इसे आज की मार्केटिंग की भाषा में समझें तो जितना महत्व प्रोडक्ट का होता है उससे अधिक महत्वपूर्ण फ़र्म होती है। यह सत्य है की किसी प्रोडक्ट की गुणवत्ता किसी फ़र्म को खड़ा करने में सहायक होती है लेकिन एक समय ऐसा आता है जब फ़र्म की विश्वसनीयता प्रोडक्ट को प्रतिष्ठा प्रदान करती है। 
प्रोडक्ट वही चलता है जिसमें बाज़ार की आवश्यकता, उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए लगातार बदलाव होता रहे और फ़र्म वही विश्वसनीय होती है जो लम्बे समय तक बिना डिगे अपनी प्रतिष्ठा को बरक़रार रख सके। 

श्रद्धेय दिलीप कुमार साहब भारतवर्ष के ऐसे महान अभिनेता थे जिन्होंने अभिनय शास्त्र में वर्णित सभी परिभाषाओं को, अभिनय के सभी प्रकारों को बहुत सहजता के साथ अपनी कला में चरितार्थ करके बताया था। उनका पंच भौतिक शरीर भले ही इस संसार से चला गया है लेकिन दिलीप साहब जैसे कलासाधक की कला इस संसार के कलाप्रेमियों के हृदय में सदैव वर्तमान रहेगी.. भावपूर्ण श्रद्धांजलि।~#आशुतोष_राना 🙏

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