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Saturday, December 4, 2021

मोतीलाल

'मोतीलाल' जिनका पूरा नाम 'मोतीलाल राजवंश' था। हिंदुस्तानी सिनेमा में नेचुरल एक्टिंग की चर्चा चलने पर कुछ गिने चुने चेहरे ही याद आते हैं। जैसे अशोक कुमार, संजीव कुमार और मोतीलाल। आज इस अनूठे अदाकार की जयंती पर उन्हें भावभीनी स्मरणांजलि ~

मोतीलाल ने अपने अभिनय के जादू से नायक और चरित्र अभिनेता के रूप में दो दशक तक दर्शकों के दिलों पर राज किया। उन्होंने हिंदी फिल्मों को मेलोड्रामाई संवाद अदायगी और अदाकारी की तंग गलियों से निकालकर खुले मैदान की ताजी हवा में खडा किया। मोतीलाल की पहचान उनके सिर की फेल्ट-हैट थी, जिसे उन्होंने कभी मुडने नहीं दिया। शानदार चमचमाते शर्ट-पेंट, जूतों की चमक में झिलमिलाते अक्स। चाल-ढाल में नजाकत-नफासत। बातचीत में शाही अंदाज। मोतीलाल जिंदादिल एक्टर ही नहीं, जीते-जागते केलिडोस्कोप थे। जब देखो, जितनी बार देखो, हमेशा अलग अंदाज में नजर आते थे मोतीलाल।

शिमला में 4 दिसंबर 1910 को जन्मे मोतीलाल राजवंश जब एक साल के थे, तभी पिता का साया सिर से उठ गया। चाचा ने परवरिश की, जो उत्तरप्रदेश में सिविल सर्जन थे। चाचा ने मोती को बचपन से जीवन को बिंदास अंदाज में जीने और उदारवादी सोच का नजरिया दिया। शिमला के अंग्रेजी स्कूल में शुरूआती पढाई के बाद उत्तरप्रदेश और फिर दिल्ली में उच्च शिक्षा हासिल की। अपने कॉलेज के दिनों में वे ऑलराउंडर स्टूडेंट थे। नेवी ज्वॉइन करने के इरादे से मुंबई आए थे। अचानक बीमार हो गए, तो प्रवेश परीक्षा नहीं दे पाए। शानदार ड्रेस पहनकर सागर स्टूडियो में शूटिंग देखने जा पहुंचे। वहां डायरेक्टर कालीप्रसाद घोष एक सामाजिक फिल्म की शूटिंग कर रहे थे। अपने सामने स्मार्ट यंगमैन मोतीलाल को देखा, तो उनकी आंखें खुली रह गई। उन्हें अपनी फिल्म के लिए ऐसे ही हीरो की तलाश थी, जो बगैर बुलाए मेहमान की तरह सामने खडा था। उन्होंने अगली फिल्म 'शहर का जादू' (1934) में सबिता देवी के साथ मोतीलाल को नायक बना दिया। तब तक पाश्र्वगायन प्रचलन में नहीं आया था। लिहाजा मोतीलाल ने के. सी. डे के संगीत निर्देशन में अपने गीत खुद गाए थे। इनमें 'हमसे सुंदर कोई नहीं है, कोई नहीं हो सकता' गीत लोकप्रिय भी हुआ। सागर मूवीटोन उस जमाने में कलाकारों की नर्सरी थी। सुरेंद्र, बिब्बो, याकूब, माया बनर्जी, कुमार और रोज जैसे कलाकार वहां कार्यरत थे। डायरेक्टर्स में महबूब, सर्वोत्तम बदामी, चिमनलाल लोहार अपनी सेवाएं दे रहे थे। मोतीलाल ने अपनी शालीन कॉमेडी, मैनरिज्म और स्वाभाविक संवाद अदायगी के जरिए तमाम नायकों को पीछे छोडते हुए नया इतिहास रचा। परदे पर वे एक्टिंग करते कभी नजर नहीं आए। मानो उसी किरदार को साकार रहे हों।

वर्ष 1937 में मोतीलाल ने सागर मूवीटोन छोडकर रणजीत स्टूडियो ज्वॉइन कर लिया। इस बैनर की फिल्मों में उन्होंने 'दीवाली' से 'होली' के रंगों तक, ब्राह्मण से अछूत तक, देहाती से शहरी छैला बाबू तक के बहुरंगी रोल से अपने प्रशंसकों का भरपूर मनोरंजन किया। उस दौर की पॉपुलर गायिका-नायिका 'खुर्शीद' के साथ उनकी फिल्म 'शादी' सुपर हिट रही थी। रणजीत स्टूडियो में काम करते हुए मोतीलाल की कई जगमगाती फिल्में आई- 'परदेसी', 'अरमान', 'ससुराल' और 'मूर्ति'। बॉम्बे टॉकीज ने गांधीजी से प्रेरित होकर फिल्म 'अछूत कन्या' बनाई थी। रणजीत ने मोतीलाल- गौहर मामाजीवाला की जोडी को लेकर 'अछूत' फिल्म बनाई। फिल्म का नायक बचपन की सखी का हाथ थामता है, जो अछूत है। नायक ही मंदिर के द्वार सबके लिए खुलवाता है। इस फिल्म को गांधीजी और सरदार पटेल का आशीर्वाद मिला था।

मजहर खान निर्देशित फिल्म 'पहली नजर' में मोतीलाल को उनके चचेरे भाई मुकेश ने प्ले-बैक दिया था। मुकेश का गाया यह पाश्र्वगीत था- 'दिल जलता है, तो जलने दे'। मोतीलाल की अदाकारी के अनेक पहलू हैं। कॉमेडी रोल से वे दर्शकों को गुदगुदाते थे, तो 'दोस्त' और 'गजरे' जैसी फिल्मों में अपनी संजीदा अदाकारी से लोगों की आंखों में आंसू भी भर देते थे।

वर्ष 1950 के बाद मोतीलाल ने चरित्र नायक का चोला धारणकर अपने अद्भुत अभिनय की मिसाल पेश की। विमल राय की फिल्म 'देवदास' (1955) में देवदास के शराबी दोस्त चुन्नीबाबू के रोल को उन्होंने लार्जर देन लाइफ का दर्जा दिलाया। सुघि दर्शकों के दिमाग में वह सीन याद होगा, जब नशे में चूर चुन्नीबाबू घर लौटते हैं, तो दीवार पर पड रही खूंटी की छाया में अपनी छडी को बार-बार लटकाने की नाकाम कोशिश करते हैं। 'देवदास' का यह क्लासिक सीन है। राज कपूर निर्मित और शंभू मित्रा-अमित मोइत्रा निर्देशित फिल्म 'जागते रहो' (1956) के उस शराबी को याद कीजिए, जो रात को सुनसान सडक पर नशे में झूमता-लडखडाता गाता है- 'जिंदगी ख्वाब है'। 'देवदास' और 'परख' फिल्मों की चरित्र भूमिकाओं के लिए मोतीलाल को फिल्मफेअर अवार्ड मिले थे।

उनसे जुड़ा एक किस्सा, कितना सच है पता नहीं। उन दिनों शांताराम जी डॉ. कोटनीस पर एक फ़िल्म बना रहे थे “डॉ. कोटनीस की अमर कहानी” जिसमें उन दिनों के दिग्गज नायक मोतीलाल को लेना तय किया गया था। मोतीलाल ने उनका प्रस्ताव स्वीकार भी कर लिया था। शांतारामजी ने उन्हें मुंहमांगी रकम भी दे दी थी। पहले दिन जब सारी बातें तय हो गयीं तो मोतीलाल ने अपने सिगरेट केस से सिगरेट निकाली और वहीं पीने लगे। शांतारामजी बहुत अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे। उनका नियम था कि स्टुडियो में कोई धूम्रपान नहीं करेगा। उन्होंने यह बात मोतीलाल को बताई और उनसे ऐसा ना करने को कहा। मोतीलाल को यह बात खल गयी, उन्होंने कहा कि सिगरेट तो मैं यहीं पिऊंगा। शांतारामजी ने उसी समय सारे अनुबंध खत्म कर डाले और मोतीलाल को फ़िल्म से अलग कर दिया। फिर खुद ही कोटनीस की भूमिका निभायी।

उन्होंने अपने जीवन के उत्तरार्द्घ में राजवंश प्रोडक्शन कायम करके फिल्म 'छोटी-छोटी बातें' बनाई थी। फिल्म को राष्ट्रपति का सर्टिफिकेट ऑफ मेरिट जरूर मिला, पर मोतीलाल दिवालिया हो गए। फिल्म 'तीसरी कसम' शैलेंद्र के जीवन के लिए भारी साबित हुई थी। कुछ ऐसा ही हाल मोतीलाल का फिल्म 'छोटी छोटी बातें' कर गई। और 17 जून 1965 को उनका निधन हो गया।

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