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Tuesday, November 30, 2021

वाणी जयराम

दिलकश आवाज की मलिका #वाणीजयराम  मशहूर प्लेबैक सिंगरों में शुमार हैं। वह सभी भाषाओं के गीत गायन में पारंगत हैं। सन् 1970 के दशक में अपना करियर शुरू करने वाली वाणी चार दशकों से मनोरंजन-जगत को अपनी मखमली आवाज से नवाज रही हैं। नई पीढ़ी भले ही उन्हें कम जानती है, मगर उनका दामन उपलब्धियों से भरा है।तमिलनाडु के वेल्लोर में 30 नवंबर, 1945 को जन्मीं वाणी जयराम ने भारतीय सिनेमा में अपनी आवाज का ऐसा जादू चलाया, जो आज भी सभी के दिलों में गूंज रहा है। सन् 1970 के दशक के गाने आज भी किसी प्रेरणास्रोत से कम नहीं हैं। उन्होंने कई हिंदी फिल्मों के गीतों को अपनी मधुर आवाज दी है। फिल्म 'गुड्डी' में जया भादुड़ी (बच्चन) पर फिल्माया गया गीत 'बोले रे पपीहरा' ने उन्हें रातोंरात शोहरत दिलाई। यह गीत सुनकर कोई भी भ्रम में पड़ सकता है और एक झटके से कह सकता है, 'यह लता मंगेशकर की आवाज है।'

भारतीय फिल्मी गायक वर्ग में उन्हें आधुनिक मीरा के रूप में जाना जाता है। साल 1979 की बात है. जाने माने शायर निर्माता निर्देशक गुलजार साहब एक फिल्म बना रहे थे. फिल्म का नाम था-मीरा. जो भक्तिमयी मीरा के जीवन के पहलुओं पर आधारित थी। मीराबाई ने अपनी सुख-संपंन्नता छोड़कर संत का रास्ता थामा था। गुलजार चाहते थे कि इस फिल्म के जरिए समाज में महिलाओं की स्थिति को दिखाया जाए जिसे अपनी आजादी और स्वाभिमान के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता है। 1974 में ‘दोस्त’ और 1977 में ‘ईमान धरम’ जैसी फिल्में बना चुके जेएन मनचंदा इस फिल्म को प्रोडृयूस करने के लिए तैयार हो गए, अब गुलजार को इस फिल्म के संगीत के लिए एक ऐसे कलाकार की जरूरत थी जो मीरा के लिखे भजनों को जान डाल दे। आखिरकार उन्होंने फिल्म ‘मीरा’ के लिए विश्वविख्यात सितार वादक पंडित रविशंकर को संगीत निर्देशन के लिए तैयार किया। मीरा फिल्म के भजन की रागदारी सुनने लायक है हालांकि इसमें आलाप किसी और का है लेकिन आवाज वाणी जयराम जी की रही। इस भजन को हेमा मालिनी पर फिल्माया गया था और राग था-तोड़ी। इस भजन में पंडित रविशंकर ने सारंगी, बांसुरी और सितार का अद्भुत संयोजन किया था. इस फिल्म के संगीत का एक और पक्ष बड़ा ही रोचक था। दरअसल फिल्म में मीरा के कुल 12-13 भजनों का इस्तेमाल किया गया था। मीरा में उनके भजन ऐरी मैं तो प्रेम दीवानी को फिल्मफेयर द्वारा श्रेष्ठ गायिका के अवाॅर्ड से नवाजा गया।  

हिन्दी तमिल कन्नड़ और अन्य फिल्मों के गानों में अपनी खूबसूरत आवाज में लाखों दिलों की जीतने वाली मशहूर गायिका वाणी जयराम को संगीत के सफर में इस मुकाम तक पहुचाने में उनके पति टीएस जयरमण का बेहद खास योगदान रहा है। इस बात को पार्श्वगायिका हमेशा मानती आईं हैं। उन्होंने ने कई क्षेत्रीय भाषा में ढेर सारे गाने गाए हैं। वाणी जयराम को बतौर हिंदी गायिका पहली बार मौका साल 1971 में और इसी साल उनका फिल्म गुड्डी में गाया बोले रे पपीहरा पपीहरा ने धूम मचा दी। इसके बाद तो बाॅलीवुड की कई फिल्मों में वाणी जी की आवाज सुनने को मिली।
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सुधा मल्होत्रा कव्वाली गायिका

#सुधा_मल्होत्रा

गायिका

जन्म - 30 नवम्बर 1936

जन्म दिन अवसर बहोत सारी शुभकामनाए🎂🎂🎂🎂🍫🍫🍫🍫🍫💐💐💐💐💐

फिल्म-संगीत के अधिकांश श्रोताओं के लिए पार्श्व गायिका सुधा मल्होत्रा का नाम अनजाना जैसा लगता है, लेकिन फिल्म की कव्वालियों में जिनकी गहरी दिलचस्पी है, वे सुधा मल्होत्रा के निश्चित तौर पर प्रशंसक हैं। ग्रामोफोन कम्पनियों की ऑडियो-डीवीडीज में सुधा इन्हीं कव्वालियों के कारण आज भी मौजूद हैं। याद कीजिए फिल्म बरसात की रात की यह कव्वाली- निगाहें नाज के मारों का हाल क्या होगा। इसे मशहूर कव्वाल शंकर-शंभू के साथ सुधा ने गया था और साथ में आशा भोसले भी थी। इसी फिल्म में ना तो कारवां की तलाश है ना हमसफर की तलाश है, ये इश्क-इश्क है इश्क-इश्क में संगीतकार रोशन ने अपने आर्केस्ट्रा का इतना संजीदा उपयोग किया है कि दशकों बीत जाने के बाद भी ये कव्वालियाँ सुनी जाती हैं। यही वजह है कि गायिका सुधा मल्होत्रा आज भी मशहूर यादगार गायिका मे से एक है।

 30 नवम्बर 1936 को जन्मी सुधा मल्होत्रा छः साल की उम्र में पहली बार स्टेज पर प्रस्तुत हुई थीं। यह स्कूली दिनों की बात है। एक बार हिम्मत आ जाने के बाद वे लगातार मंच पर गाती रही। इस विषय में उनके माता-पिता ने उनकी भरपूर मदद की थी। बचपन में सुधा की गीत-संगीत में दिलचस्पी देख माता-पिता ने उसे प्रोत्साहित किया। वह घर पर नूरजहाँ तथा कानन बाला के गीतों को हूबहू गाकर सुना देती थीं। उन्हें शास्त्रीय गायन सिखाने के लिए एक ट्यूटर रखा गया। धीरे-धीरे वे ऑल इण्डिया रेडियो लाहौर पर अपनी गायकी का हुनर प्रस्तुत करने लगी। संगीतकार गुलाम हैदर ने सुधा की आवाज को पसंद किया था। वे उसे मौका देते, इसके पहले ही भारत-पाक का विभाजन हो गया। गुलाम हैदर पाकिस्तान चले गए। सुधा को आगे बढ़ाने के लिए संगीतकार अनिल बिस्वास आगे आए। उन्होंने फिल्म आरजू (1950) में उन्हें अवसर दिया। सुधा ने पहला गाना गाया- मिला गए नैन। इस समय उनकी उम्र सिर्फ बारह साल की थी।

कभी-कभी व्यक्ति के जीवन के आँगन में बारिश की तरह अवसरों की बरसात होती है। सुधा जी के साथ भी ऐसा हुआ। अनिल बिस्वास के बहनोई मशहूर बाँसुरी वादक पन्नालाल घोष ने सुधा को फिल्म आंदोलन में गाने का निमंत्रण दिया। उन्होंने वंदे मातरम गीत गाया। सहगायक थे मन्ना डे और पारुल घोष। पचास के दशक में सुधा ने लगातार दर्जनों फिल्मों में दर्जनों गाने गाए। उस दौर के तमाम संगीतकारों ने उनकी क्लासिक-बेस आवाज के कारण उन्हें मौके भी खूब दिए। सुधा की गायिकी की दो विशेषताओं का उल्लेख करना जरूरी है। पहली है उच्चारण की स्पष्टता। दूसरे शास्त्रीय प्रशिक्षण मिलने से आवाज में लोच और मधुरता का अनोखा मेल श्रोताओं को सुनने को मिला। इस दौर के चंद उम्दा गानों का जिक्र करना सुधा की गायिकी के साथ न्याय होगा। कैसे कहूँ मन की बात (धूल का फूल), तुम मुझे भूल भी जाओ, तो ये हक है तुमको (मुकेश के साथ फिल्म दीदी), ओ रूक जा रूक जा रूक जा (चंगेज खान), गम की बदल में चमकता (रफी के साथ कल हमारा है), सलाम-ए-हसरत कुबूल कर लो (बाबर) जैसे गाने मशहूर हुए।
सुधा मल्होत्रा ​​एक भारतीय पार्श्व गायिका हैं जो 1950 और 60 के दशक में लोकप्रिय थीं। 30 नवंबर 1936 को दिल्ली में जन्मी, वह लाहौर, भोपाल और फिरोजपुर में पली-बढ़ी और आगरा विश्वविद्यालय से संगीत में स्नातक हैं।

यह संगीत निर्देशक गुलाम हैदर थे जिन्होंने उन्हें फिल्म "आरज़ू" (1950) में एक बाल कलाकार के रूप में खोजा और प्रचारित किया, जहाँ उन्होंने "मिला गए नैन" गाया। उन्होंने "मिर्जा गालिब" (1954), "नरसी भगत" (1957), "अब दिल्ली दूर नहीं" (1957), "गर्लफ्रेंड" (1960) और "बरसात की रात" (1960) जैसी फिल्मों में गाना गाया।

उनके कुछ लोकप्रिय गीत "तुम मेरी रखो लाज हरि" ("देख कबीरा रोया", 1957), "हम तुम्हारे हैं" ("चलती का नाम गाड़ी", 1958), "का से कहां मन की बात" ("धूल") हैं। का फूल", 1959) और "सलाम-ए-हसरत क़ुबूल कर लो" ("बाबर", 1960)। बॉलीवुड में उन्होंने जो आखिरी गाना गाया था, वह राज कपूर की फिल्म "प्रेम रोग" (1982) में "ये प्यार था या कुछ और था" था।

सुधा मल्होत्रा का फ़िल्मी कॅरियर

सुधा मल्होत्रा जब 11 वर्ष की थीं, तब वह एक स्टूडियो में गाना गा रही थीं और गाना था 1950 में रिलीज हुई फ़िल्म 'आरज़ू' के लिए, जिसके बोल थे 'मिला दे नैन'। जब रिकॉर्डिंग खत्म हुई तो संगीतकार अनिल बिस्वास ने ताली बजा कर इस नई आवाज़ का हौसला बढ़ाया। इस तरह फ़िल्म संगीत को मिलीं सुधा मल्होत्रा, जिन्होंने कम समय में ही फ़िल्म संगीत के इतिहास में अपना नाम सुरक्षित कर लिया। बचपन में सुधा को गाने का शौक था, उस समय उनका परिवार लाहौर में रह रहा था। वहां रेडक्रॉस का एक कार्यक्रम हुआ, जिसमें सुधा ने पहली बार लोगों के सामने गाना गाया तब उनकी उम्र थी 6 साल। उस समारोह में संगीतकार मास्टर गुलाम हैदर भी मौज़ूद थे उन्होंने इस आवाज़ को परख लिया। उनकी तारीफ ने नन्ही सुधा को आत्मविश्वास से भर दिया और जल्द ही वह 'ऑल इंडिया रेडियो लाहौर' में सफ़ल बाल कलाकार बन गईं।

●पहला गीत

Mila gaye nain // Arzoo (1950)

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बरसों बाद अचानक एक दिन किसी निजी समारोह में राजकपूर ने सुधा को ग़ज़ल गाते हुए सुना, फिर क्या था राजकपूर ने फ़ैसला कर लिया कि उनकी फ़िल्म 'प्रेम रोग' के लिए सुधा गीत गाएंगी। लंबे अर्से के बाद सुधा फिर स्टूडियो में पहुंचीं, लेकिन इस बार वह काफ़ी घबरायी हुई थीं। वह गीत 'ये प्यार था या कुछ और था' आज भी सुधा की आवाज़ की मधुरता और सुरीलेपन की याद दिलता है। सुधा ने फ़िल्मों के लिए यह आखिरी गीत गाया। क्योंकि तब तक समय बहुत आगे बढ़ चुका था मैदान की कमान युवाओं के हाथ में थीं। सुधा अब अपने परिवार में व्यस्त हैं। भजन गायकी में उनकी दिलचस्पी बनी हुई है। भले ही उन्होंने फ़िल्मों में गाना छोड़ दिया, लेकिन इस उम्र में भी उनका रियाज करना जारी है..

●आख़िरी गीत

Prem Rog // Sudha Malhotra

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पुष्प हंस पुरानी गायिका

पुष्पा हँस जी को उनकी जयंती पर विनम स्मरणांजलि।

आज भी रेडियो सिलोन के पुराने फिल्मों का संगीत के कार्यक्रम में पुष्पा हँस के गाये गीत प्रसारित होते रहते हैं ।
अपना देश(1949), शीश महल('50) , काले बादल ('51) में उन्होंने गीत भी गाये और अभिनय भी किया ।
वी शांताराम द्वारा निर्मित व निर्देशित फिल्म अपना देश ('49) की मुख्य अभिनेत्री रहीं ।
30 नवम्बर 1917 में फाजिल्का(पंजाब) में जन्मी पुष्पा हँस के पिता रतनलाल कपूर फौजदारी के नामी वकील थे । बचपन से पुष्पा हँस को गाने का बड़ा शौक था । गुनगुनाती रहती । पिता गाने के विरोधी चूंकि उस समय लड़की का गीत गाना अच्छा नहीं समझा जाता था ।किंतु नाना संगीत के जानकार व रुचि वाले थे उन्होंने अपने दामाद को पुष्पा हँस के संगीत शिक्षा हेतु कहा । लेकिन वे राजी न हुए ।
एक बार प्रख्यात शास्त्रीय गायक पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर फाजिल्का आये । पुष्पा के नाना उसे पंडितजी के पास ले गए । पंडितजी ने जब उसका गीत सुना तो मंत्रमुग्ध हो गए और संगीत की शिक्षा हेतु कहा । अब तो पिता को बात माननी ही पड़ी ।
फाजिल्का में हाई स्कूल शिक्षा प्राप्त कर उच्च शिक्षा के लिए लाहौर भेजा गया जो बड़ा शहर व केंद्र था । उच्च शिक्षा में संगीत विषय चुना । तेरह वर्ष कठिन परिश्रम किया । स्नातक डिग्री पाई । 
संगीत के प्रति समर्पित पुष्प हँस ने लाहौर रेडियो स्टेशन पर गायन प्रारम्भ किया । जहां  श्यामसुंदर, शमशाद बेगम जैसे जाने माने कलाकारों से परिचय हुआ ।
वो समय था जब लाहौर फ़िल्म निर्माण का बड़ा केंद्र था । आवाज़ टेस्ट करवाने स्टूडियो गयी वहीं जाने माने निर्माता,निर्देशक वी शांताराम भी थे । पुष्पा हँस गीत गा रही थी शांताराम उन्हें ध्यानपूर्वक सुन रहे थे, उसके गीत के समय हो रहे हावभाव पर भी नज़र थी । उसकी गायकी ,गायकी का अंदाज़, सुंदरता उन्हें खूब पसंद आया ।
वी शांताराम जी ने अपनी फिल्म में अभिनय करने का प्रस्ताव रखा । सभ्रांत परिवार की लड़कियों का फिल्मों में काम अच्छा नहीं समझा जाता समाज में सो पुष्पा हँस ने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया ।
किन्तु वी शांताराम जी ने अपने प्रयास न छोड़े । पहुंच गए पुष्पा हँस के पति हंसराज चोपड़ा के पास ,जो भारतीय सेना में कर्नल थे। उन्हें मनाया और आखिरकार उनकी फ़िल्म 'अपना देश' के लिए अनुबंधित कर लिया ।
अपना देश 1949 में प्रदर्शित हुई । फ़िल्म में उन्होंने अपने किरदार में काला चश्मा पहना और लोकप्रिय भी इसी नाम से हो गयी उस समय ।
सोहराब मोदी की शीश महल('50) में और काले बादल('51) में अभिनय किया व गीत भी गाये ।
1948 में विनोद की  पहली पंजाबी फ़िल्म चमन में गीत गाये जो अत्यंत लोकप्रिय हुए व जनता की प्रिय गायिका बनीं।
2000 से अधिक गीत गाये ।
पंजाब के रोमांटिक व लोकप्रिय गीतकार शिव कुमार बटालवी के गीतों को आवाज़ दी ।
दिल्ली आकर बस गयी । कई देशों में अपने गीतों के रंग बिखेरे जिनमें अमेरिका, कनाडा,इंग्लैंड व अन्य देश रहे ।
सुनील दत्त की संस्था अजंता आर्ट्स की टीम युद्ध के समय फौजी जवानों के मनोबल बढ़ाने सीमा पर जाती । पुष्पा हँस ने इसमें भी अपनी सेवायें प्रदान की  ।
पाक्षिक पत्रिका ईवज वीकली की मुख्य सम्पादिका रहीं । तेरह वर्ष कुशल सम्पादन किया ।
भारत सरकार ने वर्ष 2007 में इन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया और इसी वर्ष पंजाबी भूषण अवार्ड व कल्पना चावला एक्सीलेन्स अवार्ड भी मिला ।
फ़िल्म शीश महल का गीत 'आदमी वो है जो मुसीबत से परेशान न हो' उनके श्रेष्ठ गीतों में है अलावा इसी फिल्म का 'तक़दीर बनाने वाले ने कैसी तक़दीर' भूले जमाने याद न कर और अन्य गीत खूब चले ।
फ़िल्म अपना देश के गीत 'मेरी खुशियों के सवेरे की कभी शाम न हो' ,'बेदर्द जमाना क्या जाने हम कैसे हैं किस हाल में हैं','तुझे दिल की कसम' और मिर्ज़ा ग़ालिब की दो ग़ज़ल इसी फिल्म में गायीं 'कोई उम्मीद बर नहीं आती', 'दिल नादां तुझे हुआ क्या है' ।
फ़िल्म काले बादल में श्याम सुंदर के संगीत निर्देशन में दो गीत 'हम वफ़ा करते रहे वो बेवफा होते रहे' और तू माने या न माने तू जाने या ना जाने' आज भी सुनाई देते हैं पुरानी फिल्मों के संगीत में ।
खनकती व जादुई आवाज़ की इस मालकिन ने रोमांटिक, ग़म खुशी, सूफ़ी, सभी तरह के गीत हिंदी व पंजाबी में गाये ।
लंबी बीमारी पश्चात इस महान गायिका का निधन 94 वर्ष की आयु में 9 दिसम्बर 2011 में हो गया।

लेखक ~ Vimal Joshi

के सी डे लागा गठरी में चोर

तेरी गठरी में लागा चोर, मुसाफिर जाग जरा ...
बाबा मन की आंखे खोल ...

इन गीतों को भला कौन भूल सकता है। इसे गाया था कृष्ण चंद्र डे ने जिन्हें हम 'के. सी. डे' के नाम से जानते हैं। वे एक बंगाली व हिंदी संगीतकार, संगीत निर्देशक, अभिनेता एवं संगीत शिक्षक थे। और मन्ना डे उनके भतीजे थे। आज उनकी पुण्यतिथि (28 नवंबर 1962) पे उन्हें श्रद्धासुमन ~

इनका जन्म कलकत्ता में 24 अगस्त 1893 को हुआ था। वे सचिन देव बर्मन के पहले संगीत शिक्षक एवं गुरु थे। 1906 में 13 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपनी आँखों की रोशनी खो दी और पूर्ण रूप से अन्धे हो गए। उन्होंने कई थिएटरओं के लिए काम किया और अन्त में कलकत्ता के न्यू थिएटरर्स के लिए काम किया। उन्हें उनके कीर्तनों के लिए जाना जाता है। उन्हें कलकत्ता के कई रईस परिवार गाने के लिए पैसे दिया करते थे। उन्होंने ज्यादातर सोवाबाजार की राजबाड़ी के जलसे, बीडन गली के मित्रा हाउस, आदि के लिए गाया। उन्होंने करीब 600 गाने रिकाॅर्ड किए जिनमें बंगाली, हिंदी, उर्दू, गुजराती गाने और 8 नातें (मुसलमान भक्ति गीत) शामिल हैं।

उन्होंने 1932 से 1946 तक फिल्मों के लिए संगीत दिया एवं गाया। उसी समय उन्होंने फिल्मों में अभिनय भी किया। 1942 में वे बम्बई चले गए। 1946 में जब उनके संगीत एवं गायन दोनों की गुणवत्ता में कमी होने लगी, उन्होंने फिल्में छोड़ दीं। उनकी मृत्यु कलकत्ता में 28 नवम्बर 1962 को हो गई।

उनकी कुछ चुनिंदा फिल्में जिनसे वो बतौर अभिनेता, गायक व संगीतकार जुड़े थे।

1932 चंडीदास
1933 मीरा, सावित्री, पूरन भगत, नल दमयंती
1934 शहर का जादू, चंद्रगुप्त
1935 इंकलाब, धूप छाँव, देवदास, भाग्यचक्र
1936 पुजारिन माया, मंजिल, ग्रहदाह, सुनहरा संसार, 
1937 विद्यापति, मिलाप
1938 धरतीमाता
1939 सपेरे, चाणक्य
1941 शकुंतला
1942 तमन्ना
1944 इंसान
1948 पुराबी, दृष्टिदान, अनिर्बान
1952 प्रहलाद
1954 भगवान श्रीकृष्ण चैतन्य

Monday, November 29, 2021

रजनी गन्धा

"रजनीगंधा (1973)” -वर्तमान और भविष्य के आंतरिक संघर्ष का अविस्मरणीय चित्रण

भारतीय सिनेमा के इतिहास में कई बार ऐसे अवसर आए हैं, जब साहित्य और सिनेमा के लिए ऐसे सम्मेलन स्थल बने या बनाए गए, जिनमें इतना शक्तिशाली अन्योन्याश्रय संबंध दिखा कि दोनों क्षेत्रों की कृतियां संवर्धन के साथ एक दूसरे को स्थापित करने में सफल रहीं। कुछ अवसर ऐसे भी आऐ, जब साहित्यकार संतुष्ट नहीं रहा, अपनी कृतियों के फ़िल्मी रूपांतरण को लेकर। देव आनंद की “गाईड”, एक शानदार फ़िल्म थी, लेकिन आर०के० नारायण संतुष्ट नहीं थे इससे।

1970 के दशक में, हिन्दी साहित्य में, नई कहानियों का दौर अपने पूर्ण गति को प्राप्त कर चुका था और हिन्दी सिनेमा के दर्शक भी मसालेदार फ़िल्मों से अलग मध्यम सिनेमा (मिडिल सिनेमा) पसंद करने लगे थे। ये एक बहुत आदर्श स्थिति थी और इसकी वजह से मन्नू भंडारी जैसी साहित्यकार और बासु चटर्जी जैसे फ़िल्मकार का संयोजन संभव हो पाया। 1974 में मन्नू भंडारी की कहानी, “यही सच है” पर आधारित फ़िल्म, “रजनीगंधा” नाम की फ़िल्म बनी और इसे खूब सराहना मिली।

मन्नू भंडारी की कहानी, “यही सच है”, में एक महिला के उलझन को दिखाया गया है। इस फ़िल्म में दीपा (विद्या सिन्हा) का प्रेम संबंध, संजय (अमोल पालेकर) के साथ होता है और दोनों ने शादी करने का निर्णय कर लिया होता है, लेकिन एक नौकरी के इंटरव्यू के सिलसिले में दीपा (विद्या सिन्हा) को मुंबई जाना पड़ता है, जहाँ उसकी मुलाक़ात, पुराने प्रेमी नवीन (दिनेश ठाकुर) से होती है। दीपा ये पाती है कि पुराने संबंध ख़त्म होने के बाद भी नवीन के पास उसके लिए बहुत समय है और वह उसका बहुत ध्यान रखता है। संजय (अमोल पालेकर) ऐसा व्यक्ति नहीं होता है, वो प्रेम तो करता है, लेकिन उसे महसूस कराने के लिए कोई अलग प्रयास कभी नहीं करता। दीपा का मन बदलता है और वो अब नवीन से शादी करने की सोचने लगती है, लेकिन दिल्ली वापस आते ही जब संजय उससे मिल कर बताता है कि उसकी तरक्क़ी हो गई है, दीपा पुरानी बातें भूल कर, संजय के साथ ही रहने का निश्चय कर लेती है। इसे पूरे प्रकरण की प्रस्तुति में, रजनीगंधा के फूल, कभी नए तो कभी पुराने संबंधों का द्योतक बने रहते हैं।

ये प्रस्तुति, प्रख्यात नाटककार, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की “कैंडिडा” से काफ़ी मिलती है, जहाँ कैंडिडा, पति मॉरेल और प्रेमी मार्चबैंक्स के बीच, पति को चुनती है जबकि रूमानियत में मार्चबैंक्स, उसके पति की तुलना में बहुत बेहतर होता है। इसकी व्याख्या में शॉ ने, “लाईफ़ फ़ोर्स थ्योरी” दी और बताया कि जहाँ, सामाजिक, आर्थिक और भौतिक सुरक्षा का आश्वासन होता है, संबंध और प्रेम वहीं टिकते हैं। हालांकि ये अंतिम सत्य नहीं है, लेकिन अधिकतर यही मनोवैज्ञानिक दशा होती है, वास्तविक जीवन में।

फ़िल्म के निर्देशक, बासु चटर्जी थे और इसका निर्माण, सुरेश जिन्दाल और कमल सहगल ने किया था। फ़िल्म में संगीत सलिल चौधरी का था और सारे गीत, योगेश ने लिखे थे। सिनेमैटोग्राफ़ी, के० के० महाजन के ज़िम्मे थी और संपादन का काम जी० जी० मायेकर ने किया था।

“ये विद्या सिन्हा की पहली फ़िल्म थी और अमोल पालेकर की भी पहली हिन्दी फ़िल्म थी। फ़िल्म को रिलीज़ करने में काफ़ी परेशानियां आईं, लेकिन ये फ़िल्म “स्लीपर हिट ” निकली।  “स्लीपर हिट “, ऐसी फ़िल्मों को कहते हैं, जिनकी शुरूआत छोटी होती है, लेकिन वे आगे जाकर खूब सफ़ल होती हैं और यादगार बन जाती हैं।”

इस फ़िल्म को कई पुरस्कार मिले,जिनमें फ़िल्मफ़ेयर 1975 भी शामिल है। इसके एक गीत, “कई बार यूं ही देखा है”, के लिए मुकेश को सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।
मानव जीवन के शाश्वत मानसिक दोलन का, जिसमें सुरक्षा और और रोमांच के बिंदुओं के बीच मस्तिष्क झूलता रहता है और वर्तमान एवं भविष्य के बीच घर्षण होता रहता है, इस फ़िल्म में अविस्मरणीय चित्रण किया गया है।

लारा लप्पा गर्ल मीना शौरी

हिंदी फ़िल्मी गीतों में कभी कभी ऐसे शब्द आते हैं कि जिनका मतलब समझने के लिए शब्दकोश टटोलने पड़ते हैं. मज़े की बात यह कि ये गीत लोगो की ज़बान पर चढ़ जाते हैं. ऐसे ही एक गीत ने आज से 71 साल पहले धमाल मचाई थी. 
1949में आई फिल्म ‘एक थी लडकी’ के गीत ” लारा लप्पा लारा लप्पा” ने लोगों को पागल कर दिया था. वे बिना इसका मतलब जाने इस गीत पर नाचने लगे. पंजाबी टप्पे की तरह बनाया गया यह गीत फिल्म संगीत में नई बात थी. फ़िल्म में नायक मोतीलाल और नायिका मीना शौरी के बीच बहस होती है. तब मीना कहती है, आप तो लारा लप्पा करने लगे. नायक के मतलब पूछने पर वह कहती है, अब आप अड़ी टप्पा करने लगे. फिर वह अपनी ओर से लारा लप्पा का मतलब टालमटोल करना और अड़ी टप्पा का मतलब झगड़ा करना. बताती है. और फिर दफ़्तर में लड़के लड़कियाँ सवाल जवाब की तर्ज़ पर लारा लप्पा लारा लप्पा लाई रखदा, अड़ी टप्पा अड़ी टप्पा लाई रखदा गाने लगते हैं. दोनों पक्ष एक दूसरे पर आरोप लगाते हैं. लड़के “काम कुछ करती नहीं और बाँधती है साड़ियाँ ” गाते हैं. पंजाब से आए फ़िल्मकारों को साड़ी अजीब लगती थी . गाने का अंत आते आते रिद्म तेज़ हो जाती है.
फिल्म के सभी गीत अज़ीज़ कश्मीरी ने लिखे थे और संगीत दिया था विनोद ने. इनका असली नाम था एरिक्सन रॉबर्ट. इन्होंने कुछ और फ़िल्मों में संगीत दिया, पर ज्यादा चले नहीं. यह गीत निर्माताओं को इतना भाया कि अपनी अगली फिल्म ‘ढोलक’ में पहला गाना रखा, “लारा लप्पा लारा लप्पा गाए ला” और एक प्रसंग में नायक नायिका के स्वागत में बैंड पर बजवाया.
इस धुन को बॉब इज़्ज़ाम के गीत की नक़ल कहा गया. कुछ जानकार इसे अरबी गायक मोहम्मद फाउजी के गीत की नक़ल भी कहते है. भारतीय संगीतकारों ने भी इसे भुनाया. लेकिन जादू पैदा किया ओपी नैयर ने, नया दौर के गीत ” उड़े जब जब ज़ुल्फ़ें तेरी” के इंटरल्यूड में. मीना शौरी को बाद में लारा लप्पा गर्ल कहा जाने लगा.

हुस्नलाल भगतराम

'चुप चुप खड़े हो ज़रूर कोई बात है, पहली मुलाक़ात है ये पहली मुलाक़ात है ...'
'सुनो सुनो ऐ दुनिया वालो बापू की ये अमर कहानी ...'

इन गीतों को संगीत देने वाले हिंदी सिनेमा की पहली संगीतकार जोड़ी 'हुस्नलाल भगतराम' जो आपस में सगे भाई थे। इस जोड़ी के 'भगतराम बातिश' को आज उनकी पुण्यतिथि (29 नवंबर 1973) पर याद करते हुए श्रद्धासुमन। और अगले ही दिन (30 नवंबर 1914) को इनकी जयंती भी है।

भगतराम हारमोनियम के उस्ताद थे, तो हुस्नलाल वॉयलिन के। हुस्नलाल ने पटियाला के उस्ताद बशीर खां  से वॉयलिन की शिक्षा ली थी। जबकि भगतराम स्वयं के अभ्यास से हारमोनियम में पारंगत हुए थे। दोनों के शास्त्रीय गुरु एक ही थे 'पंडित दिलिप चन्द्र बेदी'। इसके अलावा दोनों ने संगीत की कई विधाएं अपने ही बड़े चचेरे भाई 'पंडित अमरनाथ' से भी सीखीं। 1940 के दशक के जानेमाने संगीतकार थे। यह जोड़ीं बनने के पूर्व भगतराम 'भगतराम बातिश' के नाम से भी कई फिल्मों में संगीत दे चुके थे। सन 1939 में ‘बहादुर रमेश’, ‘भेदी कुमार’, ‘चश्मावाली’, ‘मिडनाईट  मेल’ तथा 1940 में ‘दीपक महल’, ‘हमारा देश’, ‘हातिमताई की बेटी’, ‘सन्देश’ और ‘तातार का चोर’ आदि फिल्मों में संगीत दिया परन्तु कुछ खास सफल नहीं हो पाये। हुस्नलाल एक उत्कृष्ट शास्त्रीय गायक भी थे ,परन्तु उन्होंने अपना अधिकांश समय संगीत को ही दिया। सिनेमा में बतौर संगीतकार पहचान इनकी जोड़ी को ही मिली।

'हुस्नलाल भगतराम' संगीतकार जोड़ी की शुरुआत फ़िल्म ‘चाँद' (1944) से हुई। जो बेग़म पारा एवं प्रेम अदीब की मनमोहक अदाकारी वाली प्रभात कंपनी की फ़िल्म थी। इस फ़िल्म में एक खास बात यह भी थी कि पहली बार हिंदी सिनेमा में पंजाबी शैली के संगीत ने दस्तक दी। इस फ़िल्म में मंजू का गाया एक गाना ‘दो दिलों को ये दुनिया मिलने नहीं देती ...' बेहद मशहूर हुआ था। सदाबहार अभिनेता देवानंद की पहली फ़िल्म ‘हम एक हैं' ( 1946) एवं बी. आर. चोपड़ा की प्रथम फ़िल्म ‘अफसाना’ (1950) के संगीतकार भी हुस्नलाल भगतराम ही थे।
 
कहा जाता है कि सुरैया को भी सुर की ऊंचाई देने में इस संगीतकार जोड़ी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वहीँ, लता मंगेशकर व्यतिगत तौर पर हुस्नलाल की करीबी थीं।  ऐसा माना जाता है कि नौशाद एवं अनिल विश्वास से अधिक 'हुस्नलाल भगतराम' ने लता की गायकी को निखारने में मदद की है। लता के भाई हृदयनाथ मंगेशकर ने बाल्यावस्था में हुस्नलाल से ही वायलिन बजाना सीखा  था। बाद में फ़िल्म जगत के प्रसिद्द संगीतकार बने शंकर (शंकर जयकिशन) और ख़य्याम ने भी आरंभिक दिनों में हुस्नलाल के साथ काम किया और इनसे संगीत की बेहतर समझ हासिल की। इतना नहीं नामचीन पार्श्व गायक महेंद्र कपूर और गायक/संगीतकार मोहिंदर जीत सिंह  के संगीत गुरुओं में एक हुस्नलाल भगतराम भी थे।

हुस्नलाल भगतराम की पहली फ़िल्म 'चाँद’ के निर्देशक डी. डी. कश्यप की फ़िल्म ‘नर्गिस’ (1946) जिसमें नायिका भी नर्गिस ही थीं। इस फ़िल्म में इस जोड़ी ने आमिर बाई कर्नाटकी से कई एकल गीत गवाये। इस फ़िल्म में आमिर बाई के गाये सभी गीत बेहद चर्चित हुए।

हुस्नलाल भगतराम ने तत्कालीन समय के लगभग सभी प्रसिद्ध शायर व गीतकारों के गीतों को अपनी संगीत से सराबोर किया। उस ज़माने में शायद ही कोई स्वराकार बचा हो जिसने उनके संगीत को स्वर न दिया हो।

इनमें संगीतकार के अलावा इनके अंदर एक शिक्षक के भी गुण थे। यही कारण है की वह खुल कर लोगों से बातें करते थे, अपनी गोपनीयता पर भी कोई पर्दा नहीं रखते थे। जिसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ा। इनकी बनाई हुई काफी धुनें सिनेमा में चोरी हुई। परन्तु यह जानते हुये भी उन्होंने कभी इस बात का विरोध नहीं किया, बल्कि यह कहते हुये और खुश होते थे कि आखिर  हमने भी तो श्रोताओं के लिए ही बनाया था। उन तक पहुँच गया, यही मेरी सार्थकता है।

शंकर जयकिशन , ख्याम ,ओ पी. नैयर जैसे संगीतकार के स्थापित होते ही इनका संगीत बिखरने लगा। फलस्वरूप उनके जीवन का अंतिम दिन बहुत ही खराब और दयनीय दशा में गुज़रा। समय ने यहाँ तक मजबूर किया कि हुस्नलाल को बम्बई छोड़ कर दिल्ली आना पड़ा, जहाँ उनके परिवार के कुछ लोग रहते थे। दिल्ली का वह इलाका पहाड़गंज का चुनामंडी मुहल्ला था। जहाँ उन्होंने एक संगीतालय की स्थापना कर संगीत की शिक्षा दे कर अपनी जीविका चलाई। वहीँ दूसरी ओर भगतराम को भी उन्हीं हालात से गुजरना पड़ रहा था, स्थिति  इतनी बुरी हो गई कि उन्हें लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के ओर्केस्ट्रा में मात्र एक हारमोनियम वादक बनने पर विवश होना पड़ा।

हुस्नलाल 28 दिसम्बर 1968 की सुबह में दिल्ली के ताल कटोरा बाग में टहलने निकले, उसी दरम्यान उन्हें दिल का दौरा पड़ा और चल बसे। और भगतराम का देहांत 29 नवंबर 1973 को हुआ। ज्ञातव्य हो की दूरदर्शन के मशहूर सितार वादक अशोक शर्मा भगतराम के ही सुपुत्र हैं।

उनकी संगीतबद्ध फिल्में निम्न हैं।इनमें से मिर्जा साहेबान में इनके चचेरे बड़े भाई 'पंडित अमरनाथ' भी थे।

चाँद (1944), एक हैं, नर्गिस (1946), हीरा, रोमियो एण्ड जूलियट, मिर्जा साहेबान, मोहन(1947) आज की रात, प्यार की जीत, लखपति (1948), अमर कहानी, बड़ी बहन, जलतरंग, बालम, सावरिया, नाच, बाजार, सावन भादो, हमारी मंजिल (1949), बिरहा की रात, छोटी बहु, प्यार की मंजिल, गौना, सरताज, सूरजमुखी, मीना बाज़ार, अपनी छाया, आधी रात (1950), शगन, सनम, स्टेज, अफसाना (1951), काफिला, राजा हरिश्चन्द्र (1952), आंसू, फरमाइश (1953), कंचन (1955), मिस्टर चक्रम, आन बान (1956), दुश्मन, जन्नत, कृष्ण सुदामा (1957), ट्रॉली ड्राइवर (1958), अप्सरा (1961), शहीद भगत सिंह (1963), टारजन एण्ड द सर्कस (1965), शेर अफगान (1966)

Sunday, November 28, 2021

बात एक फ़िल्म की बंदिनी

बन्दिनी 1963 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है जिसके निर्माता और निर्देशक बिमल रॉय थे। जिन्होंने दो बीघा ज़मीन और मधुमती जैसी प्रतिष्ठित फ़िल्में बनायीं थीं। इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे अशोक कुमार, धर्मेन्द्र और नूतन। बॉक्स ऑफ़िस में इस फ़िल्म ने ठीक ठाक ही प्रदर्शन किया था। फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों में इसे उस वर्ष छ: पुरस्कारों से नवाज़ा गया था जिसमें फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पुरस्कार भी शामिल था।
यह फ़िल्म एक नारी प्रधान फ़िल्म है, जो कि हिन्दी फ़िल्मों में कम ही देखने को मिलता है। सुजाता के बाद बिमल रॉय की यह दूसरी नारी प्रधान फ़िल्म थी। बंदिनी की कहानी कल्यानी (नूतन) के इर्द-गिर्द घूमती है। यह शायद अकेली ऐसी फ़िल्म है जिसमें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में गांव की साधारण महिलाओं का योगदान दर्शाया गया हो

Friday, November 26, 2021

सुमन कल्याणपुर

1950 और 60 का दशक हिंदी म्यूज़िक इंडस्ट्री में गोल्डन एरा माना जाता है. आखिर माना भी क्यों ना जाए. मानो कुदरत ने अपने सारे रत्न एक साथ हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को इसी दौरान सौंप दिए थे. किशोर, रफ़ी, मुकेश की आवाज़ें जहां पुरुषों के दुख, उम्मीद और प्यार की आवाज़ बन रही थीं. वहीं फीमेल वॉयस के नाम पर सबकी पसंद मंगेशकर बहनें थीं. जिसमें लता जी की डिमांड पीक पर रहती थी. डिमांड ऐसी कि उस दौर में भी लता जी एक गाना गाने के 100 रुपये लेती थीं. बिज़ी शेड्यूल और महंगी फीस के चलते लता जी तक सिर्फ कुछ ही बेहद बड़े प्रड्यूसर्स पहुंच पाते थे. ज़्यादातर प्रड्यूसर्स को उनकी डेट्स नहीं मिलती थीं और कुछ उनकी महंगी फीस की वजह से उनके पास जाते ही नहीं थे.

ऐसे दौर में हूबहू लता मंगेशकर की आवाज़ वाली सिंगर मिलना इन प्रड्यूसर्स के लिए खज़ाना मिलने से कम नहीं था. परिणाम स्वरूप सुमन कल्याणपुर जी के पास फिल्मों का तांता लग गया. एक तरीके से इंडस्ट्री को दूसरी लता मिल गयी थीं. कहा जाता है कि ये बात लता जी को बिल्कुल पसंद नहीं आती थी कि कोई उनकी आवाज़ की नकल करता है. कहते हैं कि उन्होंने कई प्रड्यूसर्स से कह भी दिया था अगर वो सुमन के साथ काम करेंगे, तो वो उनके साथ काम नहीं करेंगी.

सुमन कल्याणपुर अपनी बेटी चारुल कल्याणपुर के साथ.

तुम जो मिल गए हो :-

तुम जो मिल गए हो :- 

साल था 1973 । बॉलीवुड के पर्दे पर निर्देशक चेतन आनंद की फ़िल्म "हंसते जख्म" रिलीज हुई । फ़िल्म म्यूजिकल हिट साबित हुई । कहते हैं कि कुछ फ़िल्में अपने गीत-संगीत के लिए हमेशा याद की जाती है तो कुछ फ़िल्में अपनी कहानी को ही बेहद काव्यात्मक रूप से पेश करती है, जैसे उस फिल्म से गुजरना एक अनुभव हो किसी कविता से गुजरने जैसा। "हँसते ज़ख्म" भी ऐसी ही फ़िल्म थी ।  जिसमें एक अनूठी कहानी को बेहद शायराना /काव्यात्मक अंदाज़ में निर्देशक ने पेश किया था । हमेशा की तरह यहाँ भी फिल्म के गीतकार कैफ़ी आज़मी थे। 

फिल्म अभिनेत्री प्रिया राजवंश की संवाद अदायगी, नवीन निश्चल के बागी तेवर और बलराज साहनी के सशक्त अभिनय के लिए "हंसते जख्म" आज भी याद की जाती है । पर फिल्म का एक पक्ष ऐसा था जिसके बारे में निसंदेह कहा जा सकता है कि ये उस दौर में भी सफल था और आज तो इसे एक क्लासिक का दर्जा हासिल हो चुका है ।  मदन मोहन, कैफ़ी साहब, मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर के रचे उस सुरीले संसार की जिसका एक एक मोती सहेज कर रखने लायक है. 

"तुम जो मिल गए हो, तो लगता है कि जहाँ मिल गया...." कैफ़ी साहब के इन बोलों पर रचा मदन मोहन साहब का संगीत उनके बेहतरीन कामों में से एक है। ये गीत फिल्म की कहानी में एक ख़ास मुकाम पर आता है। जाहिर है इसे भी कुछ ख़ास होना ही था। गीत बहुत ही नाज़ुक अंदाज़ से शुरू होता है, जहाँ पार्श्व वाध्य लगभग न के बराबर हैं। शुरूआती बोल सुनते ही रात की रूमानियत और सब कुछ पा लेने की ख़ुशी को अभिव्यक्त करते प्रेमी की तस्वीर सामने आ जाती है....हल्की हल्की बारिश की ध्वनियाँ और बिजली के कड़कने की आवाज़ मौहोल को और रंगीन बना देती है...जैसे जैसे अंतरे की तरफ हम बढ़ते हैं..."बैठो न दूर हमसे देखो खफा न हो....." श्रोता और भी गीत में डूब जाता है....और खुद को उस प्रेमी के रूप में पाता है, जो शुरुआत में उसकी कल्पना में था....जैसे ही ये रूमानियत और गहरी होने लगती है।

मदन मोहन का संगीत संयोजन जैसे करवट बदलता है, जैसे उस पाए हुए जन्नत के परे कहीं ऐसे आसमान में जाकर बस जाना चाहता हो जहाँ से कभी लौटना न हो...फिर एक बार निशब्दता छा जाती है और लता की आवाज़ में भी वही शब्द आते हैं जो नायक के स्वरों में थे अब तक....बस फिर क्या...."एक नयी ज़िन्दगी का निशाँ मिल गया..." वाकई ये एक लाजवाब और अपने आप में एकलौता गीत है, जहाँ वाध्यों के हर बदलते पैंतरों पर श्रोता खुद को एक नयी मंजिल पर पाता है । मदन मोहन साहब का यह संगीत आज भी रात में सुनसान सड़क पर सुनने वालों को मंत्रमुग्ध कर देता है ।

 संगीतकार मदन मोहन के बारे में संगीतकार खय्याम का कहना है कि वे संगीत के बेताज बादशाह थे। संगीत की जितनी विविधताएं होती हैं, उन सबका उन्हें गहरा ज्ञान एवं समझ थी। जबकि उन्होंने शास्त्रीय अथवा सुगम संगीत का बाकायदा कोई प्रशिक्षण नहीं लिया था। 'मदहोश', 'अंजाम' जैसी फिल्मों में संगीत देने वाले मदन मोहन जिस पहचान के हकदार थे वो उन्हें हासिल नहीं हो पाई।

फ़िल्म "हंसते जख्म" का यह अप्रतिम गीत । यह गीत आज संगीत प्रेमियों में क्लासिक का दर्जा रखता है । आप भी इसे सुनकर यकीनन मदहोश हो जाएंगे । कैफ़ी आज़मी के बोल , मदन मोहन का संगीत और आवाजें लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी की।

Badhate Zakhm // Md Rafi // Madan Mohan Saheb

 #goldenerasongs #भूलेबिसरेगीत #भूलेबिसरेनगमे

सुरिन्दर कौर लोकप्रियलोक गायिका

सुप्रसिद्ध पंजाबी लोक गायिका और गीतकार सुरिंदर कौर की आज 91वीं बर्थ एनिवर्सरी है। उनका जन्म 25 नवंबर, 1929 को विभाजन से पहले के भारत के पंजाब के लाहौर शहर में हुआ था। सुरिंदर ने दुनिया के कई मुल्कों में परफॉर्म किया। वे जहां भी गईं, लोगों ने उन्हें सिर-आखों पर बिठा लिया। पंजाबी संगीत की दुनिया में उनकी गायकी का कद इतना ऊंचा है कि हर सम्मान उसके आगे ​छोटा लगता है।

कभी उन्हें ‘पंजाब दी कोयल‘ तो कभी उन्हें ‘पंजाब दी आवाज़‘ कहा गया। सुरिंदर कौर पंजाबी संगीत की दुनिया के लिए लता मंगेशकर से कम नहीं थीं। गुरुनानक देव यूनिवर्सिटी ने उन्हें ‘लिविंग ​लीजेंड ऑफ़ पंजाब’ का खिताब दिया एवं डॉक्टरेट की उपाधि से नवाज़ा। पंजाबी संगीत नाटक अकादमी ने सुरिंदर कौर को ‘सदी की कलाकार’ के तौर पर सम्मानित किया। पूरे जीवन में उन्हें ‘पद्मश्री’ समेत कई प्रति​ष्ठित सम्मानों से नवाज़ा गया। ऐसे में लीजेंड पंजाबी लोक गायिका सुरिंदर कौर की जयंती के मौके पर जानते हैं उनके बारे में ख़ास बातें..

जिस परिवार में जन्मी उसमें गाना-बजाना मना था
पंजाबी समुदाय के बीच पूरी दुनिया में ख़ासी लोकप्रिय सुरिंदर कौर का जन्म एक सिक्ख परिवार में हुआ था। वे अपने माता-पिता की आठ संतानों में से एक थीं। उनके घर में गाने-बजाने की इजाज़त नहीं थी। लेकिन उनकी रुचि को देखते हुए उनके बड़े भाई ने उनका समर्थन किया और बड़े मुश्किल से अपने घरवालों को सुरिंदर और उनकी बड़ी बहन प्रकाश कौर की संगीत शिक्षा के लिए मनाया। 12 साल उम्र में सुरिंदर कौर और उनकी बड़ी बहन प्रकाश कौर ने मास्टर इनायत हुसैन और मास्टर पंडित मणि प्रसाद से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेने शुरु कर दिया था। अंतत: दोनों बहनों ने कड़ी मेहनत करके भारतीय क्लासिकल म्यूजिक की कठिनाइयों को पार कर लिया और आगे चलकर पंजाबी संगीत की दुनिया की स्वर कोकिला बन गईं।

पहली बार लाहौर रेडियो के लिए हुई सिलेक्ट
सुरिंदर कौर ने वर्ष 1943 में लाहौर रेडियो के लिए ऑडिशन दिया और उनकी आवाज़ बच्चों के एक म्यूजिक प्रोग्राम के लिए सिलेक्ट हो गई। यहां से उनकी संगीत की दुनिया का सफ़र शुरु हुआ। साल 1946 में एचएमवी लेबल ने एक एल्बम निकाला, जिसमें दोनों बहनों सुरिंदर और प्रकाश कौर ने पहली बार साथ गायन (ड्यूट) किया। इसका एक गाना ‘मॉंवां ते धीयां रल बैठियां’ काफ़ी पॉपुलर हुआ। अपने इस पहले गाने की बदौलत दोनों बहनें भारतीय उपमहाद्वीप में रातों-रात स्टार बन गई थीं।

लेकिन इसके बाद वे ज्यादा समय तक लाहौर में नहीं रहीं। वर्ष 1947 में हुए भारत के विभाजन के वक़्त उनके परिवार को लाहौर छोड़कर पड़ा। वहां से उनका परिवार दिल्ली आकर रहने लगा था। बाद में वे बॉम्बे में बस गए। यहां सुरिंदर कौर ने फिल्म इंडस्ट्री में बतौर प्लेबैक सिंगर काम करना शुरु किया। साल 1949 में आई फिल्म ‘शहीद’ के लिए रिकॉर्ड गाना ‘बदनाम ना हो जाये मोहब्बत का फ़साना’ व्यक्तिगत रूप से उनका हिंदी फिल्मों में सबसे ज्यादा याद किए जाने वाला गाना है।

इसके बाद उन्होंने दिल्ली लौटते हुए सरदार जोगिंदर सिंह सोढ़ी से शादी कर ली, जो दिल्ली यूनिवर्सिटी में साहित्य के प्रोफेसर हुआ करते थे। उन्होंने सुरिंदर कौर के कॅरियर को आगे बढ़ाने में काफ़ी अहम भूमिका निभाई। एक बार सुरिंदर ने अपने पति का जिक्र करते हुए बताया था कि उन्होंने ही मुझे स्टार बनाया था। वे ही मेरे गानों की लिरिक्स चुना करते थे और हम साथ में कम्पोजीशन तैयार किया करते थे। पति जोगिंदर सिंह सोढ़ी और सुरिंदर कौर ने साथ में कई सुपरहिट गाने लिखे। जिनमें ‘चन कित्था गुज़ारी एई रात वे’, ‘लठ्ठे दी चादर’, ‘शौंकण मेले दी’ ‘गोरी दियां झांझरां’ और ‘सड़के-सड़के जांदिये मुटियारे नी’ जैसे सुपरहिट गाने शामिल हैं।
छह दशक के कॅरियर में दिए कई सुपरहिट गाने
सुरिंदर कौर ने अपने करीब आधी शताब्दी से ज्यादा के कॅरियर में 2000 से अधिक गाने रिकॉर्ड किए। उन्होंने अधिकांश गाने अपने बड़ी बहन प्रकाश कौर के साथ रिकॉर्ड करवाए। प्रकाश कौर भी पंजाबी भाषा की जानी-मानी गायिका थी। सुरिंदर ने अपने कॅरियर में असा सिंह मस्ताना, हरचरण ग्रेवाल, रंगीला जट्ट और दीदार संधू के साथ कई सुपरहिट ड्यूट गाने किए। उनकी असा सिंह मस्ताना से मुलाक़ात 1954 में रूस में हुई थी। उस वक़्त वे भारत सरकार की ओर से प्रोग्राम के लिए रूस भेजी गई थीं। मस्ताना के साथ उन्होंने ज्यादा गाने रिकॉर्ड नहीं किए लेकिन दो गानों की स्टेज परफॉरमेंस ने उन्हें काफ़ी पॉपुलर बना दिया था।

सुरिंदर कौर ने पंजाबी फ़ोक गानों के अलावा साल 1948 से 1952 तक कुछ बॉलीवुड हिंदी फिल्मों के लिए भी प्लेबैक सिंगिंग की थी। साल 1984 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। पंजाबी फ़ोक संगीत में उनके उत्कृष्ठ योगदान को देखते हुए वर्ष 2006 में भारत सरकार ने सुरिंदर कौर को देश के चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार ‘पद्मश्री‘ से सम्मानित किया। ये बात अलग है कि भारत सरकार ने उन्हें यह सम्मान देने में काफ़ी देर कर दी। दुर्भाग्य की बात ये है कि उनको पद्मश्री दिए जाने की सिफ़ारिश भी जिस पंजाब की भाषा के लिए उन्होंने सारी उम्र गायन किया.. उसने नहीं बल्कि हरियाणा सरकार की ओर से की गई थी।

जब जवाहर लाल नेहरू ने की परफार्मेंस की गुज़ारिश
सुरिंदर कौर के बारे में यह किस्सा वर्ष 1953 का है। जब सुरिंदर को पंडित जवाहर लाल नेहरू का फोन आया था। नेहरू ने उनसे गुज़ारिश की थी कि आपको चीन की सरहद एक लाइव परफार्मेंस देनी है। एक प्रतिनिधिमंडल के साथ उन्हें वहां जाना था। नेहरू जी चाहते थे कि अपने गीत के जरिये सुरिंदर कौर हिंदी-चीनी भाई-भाई के संदेश को मजबूती दें। वे पहली ऐसी भारतीय लोक गायिका थीं, जिन्होंने चीन की सरहद पर ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा मंच पर लगाया था।

साल 1964 में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लेह-लद्दाख में डटे जवानों का हौसला बढ़ाने के लिए सुरिंदर कौर से देश भक्ति गीत गाने की फ़रमाइश की तो वे नर्वस हो गईं। उन्होंने लोक गीत तो खूब गाए थे लेकिन कभी देशभक्ति गीत नहीं गाया था। यही उनकी परेशानी का कारण था। ऐसे समय में सुरिंदर के पति ने उनकी परेशानी को दूर किया और कहा कि जैसा प्रधानमंत्री जी चाहते हैं, तुम्हें करना चाहिए। सुरिंदर कौर के पति ने रातों-रात गीत लिखा और उन्होंने वही गीत जवानों का हौसला बढ़ाने के लिए उसे गाया।

उस गीत के बोल यूं थे, ‘साथी हो.. साथी हो.. चला चल, होर अगाहां.. न पासां मोड़ पीछावां।’ इस गाने का हिंदी अर्थ था कि जो कुछ हुआ है, उसे भूलकर आगे बढ़ने का समय है। यह मुसीबतें आपके हौसलों को डिगा नहीं सकतीं। पंडित नेहरू समेत फौज के जवानों को यह गीत खूब भाया। इस बात का जिक्र सुरिंदर कौर अपने बच्चों से अक्सर किया करती थीं।

सुरिंदर कौर की आखिरी इच्छी यह थी कि उन्हें पंजाब की धरती पर मौत आए। इसलिए वे अंतिम दिनों में साल 2004 में बड़ी बेटी और पंजाबी की नामी गायिका डॉली गुलेरिया के साथ रहने लगीं। यहां वे चंडीगढ़ के नजदीक ज़िरकपुर में अपना घर बनवाने के लिए रह रही थीं। इसी दौरान अचानक, 22 दिसंबर 2005 में उन्हें हार्ट अटैक का सामना करना पड़ा और उन्हें पंचकुला के जनरल अस्पताल में भर्ती कराया गया था।

कुछ समय बाद वे वापस लौटी और इसके बाद जनवरी 2006 में उन्होंने बीमार होने के बावजूद राष्ट्रपति भवन पहुंचकर ‘पद्मश्री’ अवॉर्ड प्राप्त किया। ज्यादा बीमार होने पर उनको ईलाज के लिए यूएस ले जाया गया। लेकिन 14 जून, 2006 को उनका यूएस के न्यू जर्सी हॉस्पिटल में 77 साल की उम्र में निधन हो गया। उनकी तीन बेटियां डॉली गुलेरिया, नंदिनी सिंह और प्रमोदिनी जग्गी है। उनकी दोनों छोटी बेटी न्यू जर्सी में सेटल है।

सुरिंदर कौर बेदाग, पाक-साफ़ आवाज़ की मालकिन थी.. चाहे फ़िर बात सूफी गायन या लोक गीत या फिल्मी गीत.. जिस अंदाज में उन्होंने गाया हर कोई उनका मुरीद होकर रह गया। उन्होंने परिवार, समाज, पंजाब की लोक गाथाओं को अपनी आवाज़ के जादू के साथ पंजाब की फ़िजां में मिस्त्री की तरह घोला दिया, इसलिए उनकी गायकी का दर्ज़ा ‘तख्त़ हजारा’ जैसा है। सुरिंदर कौर ने एक इंटरव्यू में कहा था कि संगीत नहीं होता तो मेरी ज़िंदगी एक सामान्य महिला जैसी ही होतीं। उनके गाने ‘सुहे वे चीरेया वालेया’, ‘बाजरे दा सिट्टा’, ‘काला डोरियां’, ‘अखियां च तू वसदा’, ‘डाची वालेया’, ‘जूत्ती कसूरी’ और ‘ईक मेरी अख काशनी’ आज भी युवाओं में काफ़ी पॉपुलर हैं।

नवीन निश्चल

हम दोनों मिल के,कागज पे दिल के, चिट्ठी लिखेंगे जवाब आएगा :- 

हिंदी सिनेमा में चढ़ते सूरज को सलाम करने और डूबते सूरज से किनारा कर लेने वालों के किस्से जब सुनाए जाते हैं, तो उनमें अभिनेता नवीन निश्चल का नाम खासतौर से लिया जाता है। एक जमाना था जब नवीन निश्चल ने फिल्म परवाना में अमिताभ बच्चन के साथ एक फ्रेम में खड़े होने से इंकार कर दिया था, फिर गुरबत के ऐसे दिन भी आए जब काम पाने के लिए उन्होंने उन्हीं अमिताभ बच्चन की मदद ली और फिल्म देशप्रेमी में उनके साथी कलाकार के तौर पर काम किया। 

सन 1971 में निर्देशक मोहन सहगल ने उन्हें अपनी फिल्म 'सावन भादो' में काम दिया। यह फिल्म सुपरहिट साबित हुई और इसके बाद नवीन के सामने फिल्म निर्माताओं की लाइन लग गई। इसके बाद उन्होंने बुड्ढा मिल गया, परवाना, वो मैं नहीं, विक्टोरिया नंबर 203, धर्मा, हंसते जख्म जैसी कई बेहतरीन फिल्मों में काम किया।

नवीन निश्चल ने जितनी रफ्तार से फिल्म जगत में अपनी पहचान बनाई, उतनी ही जल्दी शोहरत उन्हें छोड़कर जाने भी लगी। वजह थी साथी कलाकारों का सम्मान न करना। शूटिंग के वक्त तरह तरह के नखरे करना और निर्माता निर्देशकों की सलाहों को तवज्जो न देना। फिर एक दिन वो भी आया जब वह मुंबई के मेट्रो थियेटर में एक फिल्म के प्रीमियर पर पहुंचे। अपनी गाड़ी से वह उतरे तो मीडिया वालों ने उनकी फोटो खींचनी शुरू कर दी। लेकिन जैसे ही फोटोग्राफरों को पता चला कि ये तो नवीन निश्चल हैं, उन्होंने अपने कैमरे नीचे कर लिए।

19 मार्च 2011 को नवीन निश्चल अपने दोस्तों निर्माता गुरदीप सिंह और अभिनेता रणधीर कपूर के साथ होली मनाने पुणे जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने गुरदीप को गाड़ी का एसी कम करने के लिए कहा। गुरदीप के एसी कम करने के कुछ ही देर बाद नवीन को दिल का दौरा पड़ा और मौके पर ही उनकी मौत हो गई।

 फ़िल्म "तुम्हारी कसम " का यह सुपर डुपर हिट गीत। आवाजें है मुकेश और आशा भोसले की ।गीतकार आनंद बक्षी , संगीतकार राजेश रोशन

Tumhari Kasam // Mukesh _ Asha

 #भूलेबिसरेगीत #भूलेबिसरेनगमे #Mukesh

Thursday, November 25, 2021

अमोल पालेकर अनमोल

अमोल पालेकर के बारे में सोचते ही ‘गोलमाल’ याद आती है. छोटा कुर्ता, राम श्याम और नकली मूंछें. फिर वो डायलॉग कि ‘कबीर को पढ़ने-पढ़ाने के लिए पूरा जीवन ही कम है, पर मैं कोशिश करूंगा कि साढ़े सात बजे तक खत्म कर दूं.’ अमोल पालेकर के चाहने वाले ये मानते हैं कि जैसी सौम्यता उनके ज्यादातर किरदारों में रही, वैसी ही उनके व्यक्तित्व में थी और इसीलिए उन्होंने बहुत चमक-दमक नहीं चाही.  

वो हमारी तरह ही किराये का कमरा खोजता, कॉलेज में लड़कियों को चिट्ठी लिखता, बस की कतार में खड़ी लड़की को चुपके-चुपके निहारता, बैचलर लॉज में रहते हुए पानी का इंतजार करता, क्लर्क की नौकरी करता, कॉफी हाउस में लड़की के साथ बैठा रहता, अपने दोस्तों के साथ दुनिया जहान की बातें करता, बीच-बीच में अपने बाल को कंघी करता, रुमाल से मुंह पोछता.

वो कभी किसी दूसरी दुनिया का सुपरमैन नहीं लगता. झोला लटकाए, बजाज स्कूटर को किक मारते, लड़की के साथ इंडिया गेट घूमते, सिनेमा जाते, पार्क में बैठ बातें करते, कभी गांव में बस से उतरते, कभी रेलवे स्टेशन से घर जाने के लिये तांगे की सवारी करते हुए वो हमेशा अपने बीच का ही कोई आदमी लगता.

मानो हम में से ही कोई एक उठकर उस बड़े से रुपहले पर्दे पर चला गया हो. उसकी फिल्मों को देखते हुए लगता जैसे हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी को ही किसी ने बड़े पर्दे पर उठाकर रख दिया हो.

वो रियलिज्म के इतना करीब था कि उसकी बेरोजगारी, सिगरेट के लिये खत्म हो गए पैसे, सेकेंड हैंड बाइक, किसी अंग्रेजी रेस्तरां में चम्मच से न खा पाने की मजबूरी, उसके सुख-दुख, मूंछों के बीच अचानक से फूंट पड़ने वाली हंसी सबकुछ अपना ही हिस्सा लगती.

उसका बैलबटन फुलपैंट, स्लीव शर्ट, पतली मूंछ, बड़े ग्लास वाला चश्मा, कानों तक लंबे बाल ठीक वैसे ही थे जो हमने अपने घर के एलबम में पापा-मामा-चाचा की जवानी की तस्वीरों में देख रखे थे.

●गोलमाल में अमोल पालेकर
उसकी प्रेमिकाएं किसी टिपिकल हिन्दी फिल्मों की तरह अचानक से नाचते-गाते नहीं मिलती, बल्कि वो उसके आसपास ही पड़ोसी के घर में, मोहल्ले में या कॉलेज- ऑफिस में साथ-साथ काम करती मिलती. हमारी तरह उसका दिल भी लड़की को प्रपोज़ करना तो दूर उससे बात तक करने में धक-धक करने लगता. महीनों-सालों वो सिर्फ लड़की को निहारता रह जाता. उसके बगल वाली सीट पर बैठकर ही खुश होता रह जाता. लड़की के समय पूछ लेने भर से न जाने कितने ख्यालों को मन में उकेर बैठता.

वो उन फिल्मी हीरो की तरह नहीं था, जो अकेले ही न जाने कितनों को निपटा देते. वो कोई महानायक, कोई काल्पनिक एंग्री यंग मैन नही था. वो तो हमारे चाचा जी की तरह था, हमारी तरह था. अपने बॉस के सामने हाथ जोड़े, ऑफिस-कॉलेज, आस-पड़ोस की आंटियों के सामने दुबका सहमा विनम्र छवि बनाए रखने वाला.

हम जब उसे पर्दे पर देखते हैं तो सिर्फ उसे नहीं देख रहे होते बल्कि अपने दब्बूपन, आम आदमी होने की लघुता को भी नाप रहे होते है. भारी भरकम सुपरहीरो वाली फीलिंग से इतर हम अपने दब्बूपन को सिनेमैटिक पोएट्री में पिरोए जाने का सुख महसूस कर रहे होते हैं. खुद की साधारण कहानी भी स्पेशल लगने लगती है.

साधारण होने की लघुता को बड़े रंगीन रुपहले पर्दे पर करीने से सजाने वाले उस नायक ने कभी महानायक बनना न चाहा.

साहिर

साहिर लुधियानवी उन गिने-चुने गीतकारों में से हैं जिनके गानों को सुनकर उनकी लव लाइफ़ के अंदाज़े लगाए जाते थे। उन्होंने ख़ुद किसी का नाम अपने से नहीं जोड़ा। उन दिनों जब सुधा मल्होत्रा और साहिर के चर्चे थे, तब साहिर का गीत आया 'चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों', तब लोगों ने माना कि दोनों अलग हो चुके हैं। हालांकि सुधा मल्होत्रा आज तक भी इस बात से इंकार करती हैं कि उन्हें साहिर उस तरह से कभी भी पसंद थे जिस तरह से ख़बरें छपा करती थीं। 

अमृता ने भी आख़िरी ख़त से लेकर इमरोज़ की पीठ और रसीदी टिकट तक साहिर का नाम लिखा लेकिन साहिर ख़ामोश रहे। साहिर की ओर से भी जो बातें थी वो भी अधिकतर अमृता ने ही सुनाई हैं। वे कहती हैं कि आख़िरी ख़त को पढ़कर साहिर ने कहा कि वे चाहते हैं कि पूरी दुनिया को पता चल जाए कि यह उनके लिए लिखा गया है लेकिन तब भी साहिर ने अपने किसी ख़ास दोस्त को भी यह बात नहीं बताई। जबकि साहिर दोस्तों से घिरे रहना पसंद करते थे, घिरे भी रहते थे। अमृता जब इमरोज़ के पास गयीं उसके बाद साहिर ने लिखा कि महफ़िल से उठ जाने वालों तुम पर क्या इल्ज़ाम, तुम आबाद घरों के वासी...। तब लोगों को लगा कि यह अमृता और इमरोज़ के लिए लिखा गया है। फिर भी साहिर ख़ामोश ही रहे। 1944 में अमृता से मुलाक़ात के बाद भी साहिर का नाम कई औरतों के साथ जुड़ा।

साहिर लुधियानवी की बायोग्राफ़ी जो अक्षय मनवानी ने लिखी है, उसमें साहिर के साथ काम कर चुके कई लोगों ने उनके बारे में अपने विचार लिखे हैं लेकिन उनकी लव लाइफ़ पर कोई विस्तृत चर्चा नहीं है या किसी ने साहिर के पक्ष को रखा हो। साहिर को ख़ूब बोलने की आदत थी, शराब पीकर वह बेकाबू भी हो जाते थे लेकिन अमृता या किसी का भी नाम कहीं नहीं लिया।

जावेद अख़्तर ने साहिर और उनके लेखन को सबसे बेहतर तरीके से पकड़ा है। जावेद के पिता जां निसार साहिर के क़रीबी दोस्तों में से एक थे, जावेद की ख़ुद भी उनसे नज़दीकी मुलाक़ातें रही हैं। साहिर और अमृता से जुड़े सवाल पर जावेद जवाब देते हैं कि – “बड़े लोग अपनी मोहब्बत में एनेकडोट जोड़ते हैं जिससे पर्सनैलिटी चार्मिंग और फ़ैसिनेटिंग लगती है, जिसे लोग पढ़ें तो कहें कि क्या बात है, अजीब ही ज़िंदगी थी इसकी। वे चाहते तो रह लेते एक साथ किसने रोका था। साहिर की ज़िंदगी में ऐसे कई एपिसोड हुए अमृता की में भी लेकिन हम बेवकूफ़ अक़ीदत से सुनते हैं ये कहानियाँ। ये सब पर्सनैलिटी को सजाने के काम हैं।“

एक बात है कि साहिर के लेखन का फ़लक इतना ऊँचा है कि उस की थाह पा लेना आसान भी नहीं है। एक नास्तिक होते हुए भी उन्होंने सुंदर भजन लिखे हैं। एक बार उन्होंने कहा भी कि मैं किस्मत को नहीं मानता तो उस पर गीत क्यूं लिखूं लेकिन यश चोपड़ा ने कहा कि उन्हें कोई कविता नहीं लिखनी फ़िल्म के दृश्य पर गीत लिखना है, तब इसी किस्मत पर साहिर की कलम ख़ूब चली। तब साहिर ने कौन सा गीत किसके लिए लिखा या नहीं लिखा ये तो कहना मुश्किल है। लेकिन वो स्टार गीतकार थे और सिंगल भी, अफ़वाहें तो लाज़िमी थीं जो आज तक चली आ रही हैं।
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वीरेंद्र सक्सेना

“वीरेन्द्र सक्सेना”
25 नवम्बर 1960
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छोटे शहर बहुत प्यारे होते हैं, उनमें रहना चाहिए, लेकिन एक वक़्त आने पर, उन्हें छोड़ भी देना चाहिए। छोटे शहर, इंसान को छोटी बातों का मतलब समझाते हैं और हर छोटी चीज़ के लिए, शुक्रगुज़ार होना भी सिखाते हैं। छोड़ इसलिए देना चाहिए इन शहरों को, क्योंकि, ये अपनी सरहदों में बांध लेते हैं, एक शख़्स को, और कई बार उनके सपनों को भी। ऐसे ही मथुरा में जब सपनों की लड़ाई, सरहदों से होने लगी, तो वीरेन्द्र सक्सेना, दिल्ली आ गए।

वीरेन्द्र का जन्म 1960 में, मथुरा में हुआ था और वहीं, इनके पिता की नौकरी थी। मथुरा में, वीरेन्द्र, बहुत मशहूर थे, नौजवानों में, क्योंकि, वे बहुत अच्छा गाते थे, चित्रकारी करते थे और एक्टिंग भी करते थे। ये बड़े बेबाक़ से थे, सो इनके दोस्त पूरे शहर में थे।

“एक दौर आया जब इन्हें मथुरा में, अपने सपनों के लिए, जगह कम पड़ने लगी. इन्होंने, मथुरा के ही, एक राजा महेन्द्र प्रताप के सेक्रेटरी के तौर पर नौकरी कर ली और दिल्ली चले आए, उनके साथ. वीरेन्द्र की लिखावट बड़ी अच्छी थी, इसलिए वे राजा के ख़त भी लिखा करते थे.”
ज़िंदगी गुज़र ही रही थी, कि इनकी मुलाक़ात, अनिल चौधरी से हुई। अनिल ने कहा कि असग़र वजाहत का एक नाटक, “इन्ना की आवाज़”, IIC में होने वाला है, वीरेन्द्र चाहें, तो उसमें काम कर लें। वीरेन्द्र ने ऐसा ही किया और इतना अच्छा किया कि अगले दिन कविता नागपाल जैसी पत्रकार ने अपने रिपोर्ट में, नाम के साथ, वीरेन्द्र का ज़िक़्र किया। ये बहुत बड़ी हौसलाअफ़ज़ाई थी इनके लिए और राजा साहब को इन्होंने अलविदा कह दिया।

फिर इन्होंने, एम०के०रैना के साथ मिल कर, प्रयोग ग्रुप के अंतर्गत ख़ूब नाटक किए और 1979 में NSD में दाख़िल हुए। इसके बाद 1985 में आई, “मैसी साहब” में ये नज़र आए। लेकिन इनको शोहरत मिली, 1988 में आई, “तमस” से। इसके बाद तो कई किरदारों के रूप में ये दिखे। “आशिक़ी”, “दामिनी”, “कभी हां, कभी ना” से लेकर “भेजा फ़्राय 2”, “कमांडो 3” और इसी साल आई, “बाग़ी 3” तक में ये दिखे हैं

टीवी पर भी इनका काम बहुत सराहा गया है। “भारत एक खोज”, “व्योमकेश बख़्शी”, “वागले की दुनिया” वाले टीवी के सुनहरे दौर से लेकर, लगभग मूक और सजे धजे किरदारों वाले सास बहु सीरियल्स के गिरे हुए दौर तक, इन्होंने काम किया है। “जस्सी जैसी कोई नहीं”, जिसे टीवी का अंतिम सीरियल कहा जा सकता है, एक निश्चित कहानी के साथ, उसमें भी वीरेन्द्र ने काम किया है। इन्होंने “White Rainbow”, “Cotton Mary”, “City of Joy” और “In Custody” जैसी बेहतरीन अंग्रेज़ी फ़िल्मों में भी काम किया है

वीरेन्द्र सक्सेना बताते हैं कि, इन्होंने हमेशा, अपनी शर्तों पर काम किया है और जब भी उन्हें सही लगा, छोटे किरदार भी निभाए और जब समझौता करने की बात आई, बड़े रोल भी ठुकरा दिए शायद इसलिए ये कभी भी झूठी रोशनियों वाली पार्टियों या जलसों में नज़र नहीं आते इनमें और इनके जैसे कई दिग्गज कलाकारों में अभिनय का अभूतपूर्व ज्ञान है, 
                  फ़िल्म फ़ेस्टिवल या अन्य आयोजनों में इन्हें आमंत्रित कर के नए अदाकारों को इनसे सीखना चाहिए, तभी वे समझ पाएंगे कि दोहरे अर्थ वाले चुटकुले के प्रदर्शन को अभिनय नहीं कहते और मोटे से पतले हो जाने को संघर्ष भी नहीं माना जाता....

देव आनंद के काले कोट पर कोर्ट का बैन

❥︎..#Dev Anand के काला कोट पहनने पर कोर्ट ने लगा दी थी रोक, ये थी वजह, लीजेंड एक्टर देव आनंद को कोई ना दे पाया टक्कर.....
       बॉलीवुड में कई एक्टर आए और गए लेकिन कोई भी लीजेंड देव आनंद(Dev Anand) जैसा नहीं आया. देव आनंद साहब ने अपने टैलेंट से करीब 6 दशकों तक लोगों के दिलों पर राज किया था. देव आनंद की एक्टिंग और डायलॉग डिलीवरी का हर कोई दीवाना था. उनके जैसा डायलॉग डिलीवरी देने वाले एक्टर ने अभी तक इंडस्ट्री में एंट्री नहीं ली. देव आनंद ने अपने हुनर, अदाकारी और रूमानियत के जादू से लाखों फैंस बनाए थे. उनका जादू फैंस के सिर पर चढ़कर बोलता था. देव आनंद साहब अपने जमाने के फैशन आइकन माने जाते थे. फैंस उनकी एक झलक पाने के लिए बेकरार रहते थे.. ..

✰देव आनंद ने अपने जमाने में काले कोट को लेकर काफी सुर्खियां बटोरी थीं. काला कोट पहनकर जब देव आनंद साहब पब्लिक प्लेस में निकल जाते थे तो लोग उनकी झलक पाने के लिए दीवाने हुए जाते थे. देव आनंद के काला कोट और व्हाइट शर्ट इतना पॉपुलर हुआ था कि हर कोई उनके जैसे लुक को पाने के लिए कॉपी करता था लेकिन देव आनंद के लुक को कोई टक्कर नहीं दे पाया. ऐसा बताया जाता है कि देव आनंद जब पब्लिक प्लेस में काला कोट पहनकर निकल जाते थे तो लड़कियां दीवानी हो जाती थीं. इतना ही नहीं अपनी छत से कूदने को भी तैयार रहती थीं. ..

✰देव आनंद के लिए लोगों की दीवानगी को देखते हुए कोर्ट ने पहली बार किसी एक्टर के पहनावे के मामले में दखल दिया था. कोर्ट ने देव आनंद के पब्लिक प्लेस में काला कोट पहनने पर बैन लगा दिया था. देव आनंद ने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत 1946 में फिल्म 'हम एक हैं' से की थी लेकिन यह फिल्म कुछ खास नहीं चली थी लेकिन 1948 में देव आनंद की फिल्म 'जिद्दी' ने दर्शकों का दिल जीत लिया. 'जिद्दी' से देव आनंद स्टार बन गए थे. देव आनंद ने अपने हुनर से करीब 6 दशकों तक फैंस के दिलों पर राज किया है.

मदन मोहन कर चले हम फिदा

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                      मदन मोहन का संगीत 
     आज भी देशभक्ति के जज्बे को बुलंद करता है

वर्ष 1965 मे प्रदर्शित फिल्म ..हकीकत .. में मोहम्मद रफी की आवाज में मदन मोहन के संगीत से सजा गीत ..कर चले हम फिदा जानों तन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों ..आज भी श्रोताओं में देशभक्ति के जज्बे को बुलंद कर देता है। आंखों को नम कर देने वाला ऐसा संगीत मदन मोहन ही दे सकते थे। 

संगीत सम्राट नौशाद हिन्दी फिल्मों के मशहूर संगीतकार मदन मोहन के गीत ‘आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे, दिल की ऐ धड़कन ठहर जा मिल गयी मंजिल मुझे’से इस कदर प्रभावित हुये थे कि उन्होंने इस धुन के बदले अपने संगीत का पूरा खजाना लुटा देने की इच्छा जाहिर कर दी थी।  

उनके पिता राय बहादुर चुन्नी लाल फिल्म व्यवसाय से जुड़े हुये थे और बाम्बे टाकीज और फिलिम्सतान जैसे बडे फिल्म स्टूडियो में साझीदार थे। घर मे फिल्मी माहौल होने के कारण मदन मोहन भी फिल्मों में काम करके बडा नाम करना चाहते थे लेकिन अपने पिता के कहने पर उन्होंने सेना मे भर्ती होने का फैसला ले लिया और देहरादून में नौकरी शुरू कर दी। कुछ दिनों बाद उनका तबादला दिल्ली हो गया। लेकिन कुछ समय के बाद उनका मन सेना की नौकरी से ऊब गया और वह नौकरी छोड़ लखनऊ आ गये और आकाशवाणी के लिये काम करने लगे।

आकाशवाणी में उनकी मुलाकात संगीत जगत से जुडे उस्ताद फैयाज खान,उस्ताद अली अकबर खान ,बेगम अख्तर और तलत महमूद जैसी जानी मानी हस्तियों से हुयी जिनसे वह काफी प्रभावित हुये और उनका रूझान संगीत की ओर हो गया। अपने सपनों को नया रूप देने के लिये मदन मोहन लखनऊ से मुंबई आ गये। मुंबई आने के बाद मदन मोहन की मुलाकात एस डी बर्मन. श्याम सुंदर और सी.रामचंद्र जैसे प्रसिद्व संगीतकारो से हुयी और वह उनके सहायक के तौर पर काम करने लगे। संगीतकार के रूप में 1950 में प्रदर्शित फिल्म ..आंखें.. के जरिये वह फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने मे सफल हुए। इस फिल्म के बाद लता मंगेशकर मदन मोहन की चहेती गायिका बन गयी और वह अपनी हर फिल्म के लिये लता मंगेशकर से ही गाने की गुजारिश किया करते थे। लता मंगेशकर भी मदनमोहन के संगीत निर्देशन से काफी प्रभावित थीं और उन्हें ..गजलों का शहजादा .. कह कर संबोधित किया करती थीं। संगीतकार ओ पी नैयर अक्सर कहा करते थे ,“मैं नहीं समझता कि लता मंगेशकर ,मदन मोहन के लिये बनी हैं या मदन मोहन,लता मंगेशकर के लिये लेकिन अब तक न तो मदन मोहन जैसा संगीतकार हुआ और न लता जैसी पार्श्वगायिका।”

मदनमोहन के संगीत निर्देशन मे आशा भोंसले ने फिल्म मेरा साया के लिये ..झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में .. गाना गाया जिसे सुनकर श्रोता आज भी झूम उठते हैं। उनसे आशा भोंसले को अक्सर यह शिकायत रहती थी कि ..वह अपनी हर फिल्म के लिये लता दीदी को हीं क्यो लिया करते है .. इस पर मदनमोहन कहा करते ..जब तक लता जिंदा है उनकी फिल्मों के गाने वही गायेंगी। मदन मोहन केवल महिला गायिका के लिये ही संगीत दे सकते है वह भी विशेषकर लता मंगेशकर के लिये। यह चर्चा फिल्म इंडस्ट्री में पचास के दशक में जोरों पर थी लेकिन 1957 में प्रदर्शित फिल्म ..देख कबीरा रोया ..में पार्श्वगायक मन्ना डे के लिये ..कौन आया मेरे मन के द्वारे ..जैसा दिल को छू लेने वाला संगीत देकर उन्होंने अपने बारे में प्रचलित धारणा पर विराम लगा दिया। वर्ष 1965 मे प्रदर्शित फिल्म ..हकीकत .. में मोहम्मद रफी की आवाज में मदन मोहन के संगीत से सजा गीत ..कर चले हम फिदा जानों तन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों ..आज भी श्रोताओं में देशभक्ति के जज्बे को बुलंद कर देता है। आंखों को नम कर देने वाला ऐसा संगीत मदन मोहन ही दे सकते थे। 

वर्ष 1970 मे प्रदर्शित फिल्म ..दस्तक .. के लिये मदन मोहन सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किये गये। उन्होंने अपने ढाई दशक लंबे सिने कैरियर में लगभग 100 फिल्मों के लिये संगीत दिया। अपनी मधुर संगीत लहरियों से श्रोताओं के दिल में खास जगह बना लेने वाला यह सुरीला संगीतकर 14 जुलाई 1975 को इस दुनिया से अलिवदा कह गया। मदन मोहन के निधन के बाद 1975 में ही उनकी ..मौसम .. और लैला मजनू जैसी फिल्में प्रदर्शित हुयी जिनके संगीत का जादू आज भी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करता है। मदन मोहन के पुत्र संजीव कोहली ने अपने पिता की बिना इस्तेमाल की 30 धुनें यश चोपड़ा को सुनाई जिनमें आठ का इस्तेमाल उन्होंने अपनी फिल्म ..वीर जारा..के लिये किया। ये गीत भी श्रोताओं के बीच काफी लोकप्रिय हुये।

Wednesday, November 24, 2021

अमोल पालेकर

पद्मा खन्ना तब अब

सुरैया

कमल हासन 4 ईयर

राज ऋषि

महमूद और बहन मीनू मुमताज़

शर्मिला माला

राज कपूर एंड संस

युवा अमरीश

नाना फैमिली

यादगार आर्टिस्ट

युवा हेलन

संजू सुनील जी

रीना रॉय

धरम हेमा

डैनी किम

हेलन कल आज

गुलशन बावरा

◆फिल्म में पहला गीत लिखने से पहले करना पड़ा संघर्ष

जब गुलशन बावरा का मन क्लर्क की नौकरी में लगा ही नहीं तो वे बॉलीवुड में गीतकार के रूप में खुद को स्थापित करने के​ लिए आ गये। फिल्म जगत में शुरुआत में उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा था। वे छोटे बजट की फिल्मों में काम करने को विवश थे। सिनेमा जगत में उनको पहला अवसर वर्ष 1959 में फिल्म ‘चंद्रसेना’ में मिला, जिसके लिए उन्होंने पहला गीत लिखा। हालांकि, उनके पहले गाने को खास कामयाबी नहीं मिली।

●कल्याणजी और आनंदजी से मुलाकत ने बदली किस्मत

फिल्मी कॅरियर के उतार-चढ़ाव के दौरान गुलशन बावरा की मुलाकात प्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी कल्याण जी और आनंद जी से हुई। उनके संगीत निर्देशन में गुलशन ने फिल्म ‘सट्टा बाजार’ के लिये- ‘तुम्हें याद होगा कभी हम मिले थे’ गीत लिखा, जिसे सुनकर फिल्म के वितरक शांतिभाई पटेल काफी खुश हुए। दबे जी को उनके द्वारा लिख इस गीत पर विश्वास नहीं हुआ कि इतनी छोटी सी उम्र में कोई व्यक्ति इतना डूबकर लिख सकता है। फिर क्या था शांतिभाई ने ही उनको ‘बावरा’ के उपनाम से पुकारना शुरू कर दिया और पूरी फिल्म इंडस्ट्री उन्हें गुलशन मेहता के बजाय गुलशन बावरा के नाम से पुकारने लगी।

लगभग आठ वर्षों तक गुलशन बावरा को मायानगरी में संघर्ष करना पड़ा था। आखिरकार उनकी मेहनत रंग लाई और उनको संगीतकार जोड़ी कल्याणजी-आनंदजी के संगीत निर्देशन में निर्माता-निर्देशक मनोज कुमार की फिल्म ‘उपकार’ में गीत लिखने का मौका मिला। जब उन्होंने गीत ‘मेरे देश की धरती सोना उगले…’ गाकर सुनाया तो मनोज  ने बहुत पंसद किया और इसके बाद गुलशन बावरा ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

◆कई फिल्मों में अभिनय भी किया था 
बावरा ने

वर्ष 1969 में फिल्म ‘विश्वास’ के लिए उन्होंने ‘चांदी की दीवार न तोड़ी..’ जैसे भावपूर्ण गीत लिखकर बता दिया कि वे किसी भी प्रकार के गीत लिख सकते हैं। बावरा जी ने कल्याणजी-आनंदजी के संगीत निर्देशन में 69 गीत लिखे, वहीं आर. डी. बर्मन के साथ 150 गीत लिखे थे। उन्होंने फिल्म ‘सनम तेरी कसम’, ‘अगर तुम न होते’, ‘सत्ते पे सत्ता’, ‘यह वादा रहा’, ‘हाथ की सफाई’ और ‘रफू चक्कर’ को अपने गीतों से सजाया था। यही नहीं अपनी बहुमुखी प्रतिभा के कारण उन्होंने अभिनय के क्षेत्र में भी हाथ आजमाया और कई फिल्मों में एक्टिंग भी की। इनमें फिल्म ‘उपकार’, ‘विश्वास’, ‘जंजीर’, ‘पवित्र पापी’, ‘अगर तुम ना होते’, ‘बेईमान’, ‘बीवी हो तो ऐसी’ आदि प्रमुख हैं। इसके अलावा उन्होंने फिल्म ‘पुकार’ और ‘सत्ते पे सत्ता’ के लिए पार्श्व गायन किया।

दिलीप नाम रखा देविका रानी ने

**राजेन्द्र कुमार, मनोज कुमार, संजय ख़ान, अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना, शाहरुख़ ख़ान जैसे सभी बड़े नायक दिलीप कुमार के अभिनय से प्रभावित रहे। आने वाली पीढ़ियां भी दिलीप कुमार के अंदाज़ से आसानी से मुक्त नहीं हो पाएंगे। **

**अपनी आत्मकथा में दिलीप कुमार लिखते हैं, “उन्होंने (देविका रानी ने) अपनी शानदार अंग्रेज़ी में कहा – यूसुफ़ मैं तुम्हें जल्द से जल्द एक्टर के तौर पर लॉन्च करना चाहती हूं… **

**ऐसे में यह विचार बुरा नहीं है कि तुम्हारा एक स्क्रीन नेम हो… ऐसा नाम जिससे दुनिया तुम्हें जानेगी और ऑडियंस तुम्हारी रोमांटिक इमेज को उससे जोड़कर देखेगी… मेरे ख़याल से ‘दिलीप कुमार’ एक अच्छा नाम है… जब मैं तुम्हारे नाम के बारे में सोच रही थी तो ये नाम अचानक मेरे दिमाग़ में आया… तुम्हें यह नाम कैसा लग रहा है?”**

**دیکھیں جی! میں تیسری دہائی کے شروع میں پشاور کے عام گھرانے میں پیدا ہوا۔ ہمارے ہاں بہت غربت یا بہت زیادہ خوشحالی نہیں تھی۔ وہ زمانے رشتوں کی باریکیاں ڈھونڈنے کے نہیں تھے۔ مروتیں اور محبتیں نہھانے کے زمانے تھے۔ محلہ کے بزرگوں کا ہی نہیں شہر بھر کے بزرگوں کا احترام ایسے ہی کیا جاتا تھا جیسے خون کے رشتوں کا اور اسی طرح بڑے لوگ بھی شفقت کا تعلق نبھاتے تھے۔**

**اگرچہ پشاور میں میرا قیام اوائل عمر کے بھی مختصر عرصے کا تھا پھر بھی جائے پیدائش کے رشتے کی جڑیں بڑی گہری اور عزیز ترین ہوتی ہیں۔ اتنی دنیا دیکھنے کے بعد بھی اس مٹی کی مہک مجھے نہیں بھولتی۔ اتنے لوگوں کے ساتھ عمر بھر بِتانے کے باوجود مجھے اپنے سرحد کے سادہ لوگ، ان کی خوشیاں غم ، مسکراٹیں یاد آتی رہتی ہیں اور اگر اسے میری لفاظی نہ سمجھا جائے تو میں یہ کہوں گا کہ میں اپنی زندگی میں حاصل ہو نے والی نیک نامی، شہرت اور دولت کے باوجود اگر کبھی کوئی کسک اور کوئی کمی با تشنگی محسوس کرتا ہوں تو محض اس بات کی کہ کاش مجھے پشاور میں کچھ وقت گزارنے کے زیادہ مواقع مل جاتے۔ شاید یہ بھی ہوتا کہ اگر میں پشاور میں ہی رہتا تو آج یہ الفاظ نہ کہہ رہا ہوتا۔**

Friday, November 19, 2021

रफी के बिना ये अधूरे

देव आनंद, दिलीप कुमार, राजेंद्र कुमार, शम्मी कपूर और धर्मेन्द्र बाँलीवुड के ऐसे पाँच सशक्त महारथी रहे है, जिनकी फिल्मो को अपार शोहरत हासिल हुई है, और यह तमाम नायक आज भी दर्शको के दिलो दिमाग में ताज़ा बने हुए है…दशको बाद भी… लेकिन जरा ठहरिये..क्या इन तमाम नायको को रफ़ी साहब नाम का पारस पत्थर नहीं मिलता तो क्या वे इतने लोकप्रिय हो पाते? इसका जवाब भी  पाठकोँ को ही देना है।

देव साहब जब जब अपनी रोमांटिक अदाओं के साथ नायिका वैजन्ती माला को पुकारते है, ‘दिल पुकारे आरे-आरे’ या फिर दूसरी नायिका वहीदा रहमान को नहायत दर्द भरे अंदाज में आश्वत करते हुए फरमाते है, ‘लाख मन ले दुनिया साथ ना ये छुटेगा’ या फिर गहराती शाम से घिरे, ठंडी हवाओं की मस्ती में उनींदे से किसी हिल स्टेशन में एक प्रेमी की अपनी प्रेमिका नूतन से मिलने की ललक में जब प्यार भरी तड़प एक नगमे के रुप मेँ उभर कर आती है, ‘तू कहाँ यह बता, इस नशीली रात में… माने या ना माने मेरा दिल दीवाना’ तब दर्शक (श्रोता) भी दम भर को सांस थाम लेते हैँ और एक ‘सुदर्शन युवा’ के प्यार की गहराइयों में उतरते चले जाते है…गहराईयों में कहीं और नीचे और इस प्यार के फलसफे के पीछे जो आवाज है, वो सब उसी का ही तो कमाल है।

नवकेतन बैनर अपने समकालीन बैनर आर. के. जैसा ही सुरीले, हित संगीत का सर्जक रहा है। देव आनंद ने अपनी शुरुआत फिल्म ‘जिद्दी’ के किशोर कुमार जी के स्वर वाले गीत ‘मरने की दुआएं क्यों मांगू, जीने की तम्मना कौन करे’ (संगीतकार- खेमचंद्र प्रकाश, 1948) से जरुर की थी। लेकिन पचास के दशक के मध्य में जब देव अपनी शैली और अपने मनमोहक लुक के कारण तेज़ी से उभरते चले जा रहे थे। तब उन्होंने रफ़ी साहब के गले को ही अपने होठों के लिए ज्यादा मुनासिब समझा…और यह सब मुमकिन और सरल बनाया संगीतकार एस. डी. बर्मन ने….और बर्मनदा और देव साहब दोनों दिल के युवा थे और देव साहब तो शारीरिक रूप से भी हैण्डसम और युवा थे ही। त्रिपुरा के सही परिवार से ताल्लुक रखने वाले प्राय: पान चवाने वाले सचिन देव बर्मन शीघ्र ही नवकेतन के अभिन्न अंग बन गए थे, ठीक वैसे ही शंकर जयकिशन आर. के. के बन गए थे। संगीत रसियों ने इन दोनों कैंपो के संगीत का जी भर के रसास्वादन करना प्रारंभ कर दिया..वर्षों तक…सदियों तक…

दोनों कैंप की एक साझा विशेषता यह थी कि संगीत में दोनों ही प्रकृति, हरियाली, सुन्दर वादियों, पर्वतों से पूरी तरह सम्मोहित थे। ये चीजें उनके गीत संगीत में झलकता भी था। रफ़ी साहब और देव साहब का साथ पाचास के दशक के प्रारंभ में शुरू हुआ जब देव-सुरैया की मोहम्म्बत भी चरम पर थी… यह दौर था देव-सुरैया की फिल्म ‘सनम’ (1954) के दिनों का…. इस जोड़ी के गीतों के आल टाइम हिट गीतों की झड़ियाँ लगा दी, ‘सी. आई. डी’, ‘सोलवा साल’, ‘काला बाजार’, ‘काला पानी’, ‘हम दोनों’, ‘शराबी’, ‘असली नकली’, ‘तेरे घर के सामने’, ‘जब प्यार किसी से होता है’, ‘गाइड, तीन देवियां, कहीँ और चल, ज्वेल थीफ, दुनिया, प्यार मोहब्बत, महल, बंबई का बाबू, ’ इत्यादि से लेकर ‘गेम्लर’ (1970) तक… खुद देव साहब ने यह स्वीकार किया था कि रफ़ी साहब ने जो गीत गाये वो किसी और के बूते की बात नहीं,

 हालाकिं वे यह भी स्वीकार करते है कि उनके व्यक्तित्व से किशोर कुमार की आवाज ज्यादा सूट करती थी इसलिए उनसे ज्यादा गीत गवाए।
लेकिन यदि आप रोमांटिक देव की छवि निहारेंगे तो पाएंगे कि यह रफ़ी साहब के कारण ही मुमकिन हुई…फली फूली। रोमांस की हद तो देखिये, ‘खोया-खोया चाँद, खुला आसमान’, ‘दिल का भंवर करे पुकार’, ‘तू कहाँ ये बता इस नशीली रात में, ‘मेरा मैन तेरा प्यासा’, ‘तेरे मेरे सपने अब एक रंग है’ आदि अब ज़रा शोकांकतिका, दख, अवसाद की पीडा भी देखिये रफ़ी साहब के स्वर में , देव के चेहरे पर.. ‘दिन ढल जाये हाय रात ना जाये’, कहीँ बेखयाल होकर  ‘कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया।’

देव साहब के सैकड़ो गीतों के बीच जब उनका कोई पसंदीदा गीत चुन ने को कहा गया तब उन्होंने खुद स्वीकारते हुए कहा था कि जिंदगी के फलसफे को बयां करने वाला गीत “मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया”….मेरे आल टाइम फेबरेट है। रफ़ी साहब ने निहायत ख़ुशी भरे अंदाज़ में जिंदगी की फिलोसोफी बयां कर दी है… ठीक वैसे ही ‘अभी ना जाओ छोड के…रफ़ी साहब ने कितनी खूबसूरती और सरलता से रोमांस को प्रकट कर दिया।

रफी- देव जोड़ी के सुरीले मेल को फिल्म "असली-नकली" के इस गीत से अच्छी तरह समझा जा सकता है, जैसे वे ही कह रहे हैँ  

‘प्यार का साज़ भी है,
दिल की आवाज भी है
मेरे गीतों से तुम्ही तुम हो
मुझे ये नाज़ भी है….

आवाज और सुर को भली भांति मिश्रण कर गीत की शक्ल में पेश करने में रफ़ी साहब को महारथ हासिल थी…और यह महारथ उसे गाते वक़्त अदा कर में घुल मिल जाती थी…और शायद वे इसी वजह से वे एक यूनिवर्सल स्टार बन सके…। 

रफ़ी साहब देव साहब के व्यक्तित्व, मैनेरिज़म स्टाइल की भली भांति जानते थे, इसलिए वो इसी किस्म की आवाज भी वैसे ही पेश कर देते थे। देव साहब की विशेष स्टाइल है तो आवाज भी वैसी ही पेश कर देते थे। परदे पर ऐसे लगता था कि देव साहब खुद ही गीत गा रहे हो। जब किसी फिल्म में नायक (देव आनंद), नायिका (मधुवाला) से रूठ गए हैँ और नायिका बड़ी ही शिद्दत की साथ प्रेमी को मानाने और माफ़ी वाले अंदाज़ में रुठते हुए गाता है ‘अच्छा जी मैँ हारी चलो मान जाओ न.’ और प्रत्युत्तर मेँ नायक बडे ही दिलकश अंदाज मेँ रुठते हुए गाता है "देखी सब की यारी मेरा दिल जलाओ ना"

इस पुरे गीत को आप ध्यान से देखेंगे तो पता चल जायेगा कि रफ़ी साहब ने क्या खूब ‘देव आनंद’ बनकर गाया है।

 (धीरेन्द्र जैन द्वारा कलमबद्द "वो जब याद आए" से आभार सहित)

Thursday, November 18, 2021

v शांताराम जी

वी. शांताराम एक फ़िल्मकार, अभिनेता और फिल्म निर्माता निर्देशक तथा सिनेमा जगत के पितामह थे। 16 साल की उम्र में मात्र पांच रुपए मासिक पर उन्होंने टीन शेड वाले सिनेमा हाल में अपने करियर की शुरुआत की। 1921 में सुरेखा हरण नामक मुक फिल्म से बतौर अभिनेता अपने सफर की शुरुआत करने के बाद वे फिल्म निर्देशन से जुड़ गए। 1927 में नेताजी पालकर बतौर निर्देशक ने डॉक्टर कोटनिस की ‘अमर कहानी’ (1946), ‘अमर भूपाली’ (1951), ‘झनक-झनक पायल बाजे’ (1955), ‘दो आंखें बारह हाथ’ (1957) और ‘नवरंग’ (1959) जैसी विविधतापूर्ण और गूढ़ अर्थों वाली फ़िल्में बनाकर अलग मुक़ाम हासिल किया था। 1985 में उन्हे दादा साहेब फाल्के अवार्ड से नवाजा गया। 
जन्म

वी. शांताराम जी का जन्म 18 नवंबर 1901को कोल्हापुर, महाराष्ट्र में हुआ था। उनका पूरा नाम राजाराम वांकुडरे शांताराम था।

करियर

16 साल की उम्र में मात्र पांच रुपए मासिक पर उन्होंने टीन शेड वाले सिनेमा हाल में अपने करियर की शुरुआत की। 1925 में बतौर अभिनेता एक फिल्म की।1927 में नेताजी पालकर बतौर निर्देशक ने डॉक्टर कोटनिस की ‘अमर कहानी’ (1946), ‘अमर भूपाली’ (1951), ‘झनक-झनक पायल बाजे’ (1955), ‘दो आंखें बारह हाथ’ (1957) और ‘नवरंग’ (1959) जैसी विविधतापूर्ण और गूढ़ अर्थों वाली फ़िल्में बनाकर अलग मुक़ाम हासिल किया था। 1946 में उनकी फिल्म शकुंतला 104 हफ्ते चली। 1957 में आई फिल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’ को अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली। उनकी आखिरी फिल्म ‘झांझर’ थी। 

 सिनेमा जगत के पितामह

फिल्मों की दुनिया में कदम उन्होंने 1920 में रखा, वे बाबू राव पेंटर की ‘महाराष्ट्र फिल्म कंपनी’ से जुड़कर फिल्म बनाने की बारीकियां सीखीं। एक साल बाद 1921 में उन्हें मूक फिल्म ‘सुरेख हरण’ में बतौर अभिनेता काम करने का मौका मिला। 1929 में उन्होंने अपनी प्रभात कंपनी फिल्म्स की स्थापना की जो आज भी काफी प्रसिद्ध है। इसके बैनर तले उन्होंने खूनी खंजर, रानी साहिबा और उदयकाल सरीखी फिल्में बनाईं। अपने कंपनी के बैनर तले शांताराम ने लगभग 50 फिल्मों का निर्माण किया।

फिल्म

1957  – दो आँखें बारह हाथ आदिनाथ

1959 – नवरंग

1967 –  गुनाहों का देवता

1967 –  बूँद जो बन गयी मोती

1964 – गीत गाया पत्थरों ने

1959  – नवरंग

1957 –  दो आँखें बारह हाथ

1955 –  झनक झनक पायल बाजे

1946 – अमर कहानी

1951 – अमर भूपाली

पुरस्कार

1957 में वी. शांताराम को झनक-झनक पायल बाजे के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फ़िल्मफेयर पुरस्कार दिया गया था।

उनकी कालजयी फ़िल्म दो आंखें बारह हाथ के लिए सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार प्रदान किया गया

1985 में उन्हे दादा साहेब फाल्के अवार्ड से नवाजा गया।

उन्हें पद्म विभूषण  से नवाजा गया। 

वी. शांताराम जी के 116वें जन्मदिन पर 18 नवंबर, 2017 को इंटरनेट सर्च कंपनी गूगल ने डूडल के जरिए उन्हें श्रद्धांजलि दी थी।

मुकेश रफी का आखिरी गाना

किस गाने के बाद रफी और मुकेश की जोड़ी हमेशा के लिए टूट गई थी?

रफी साहब और मुकेश जी की दोस्ती की जब भी बातें होती हैं एक गाना मन मस्तिष्क में अचानक से कौंध जाता है, यह वही गाना है जिसकी चर्चा होते ही मुकेश जी और रफी साहब की दोस्ती के किस्से बरबस जुबां पर आ जाते हैं- "सात अजूबे इस दुनिया में आठवीं अपनी जोड़ी" ।

यहां बता देना जरूरी है कि इस गाने की एक पंक्ति को लेकर काफी बवाल भी मचा था, हुआ यह था कि गाने के एक अंतरे में -… मुश्किल से काबू में आये लड़की हो या घोड़ी....वाली लाइन को लेकर फिल्म के निर्माता - निर्देशक और गीतकार को कई विरोध प्रदर्शन का सामना करना पड़ा। 1977 में आई फिल्म- "धर्मवीर" के गानें फिल्म से पहले रिलीज किये गए , सारे गाने हिटभी रहे, पर इस एक गाने को लेकर हंगामा खड़ा हो गया, खास तौर पर महिला संगठनों ने लड़की की तुलना घोड़ी से किए जाने को लेकर भारी विरोध किया, जाहिर सी बात है लड़की की तुलना एक घोड़ी से करना कहीं से भी उचित नहीं था, फलस्वरूप मामला इतना बढ़ गया कि विवश होकर गाने की उस पंक्ति में ही बदलाव करना पड़ा। गाने की रिकॉर्डिंग और शूटिंग भी दुबारा करनी पड़ी।

पहले गाने को इस तरह रिकॉर्ड किया गया था-

यह लड़की है या रेशम की डोर है, कितना गुस्सा है,कितनी मुंहजोर है

ढीला छोड़ ना देना हंस के रखना दोस्त लगाम कस के

अरे मुश्किल से काबू में आये लड़की हो या घोड़ी.....

बाद में- अरे मुश्किल से काबू मे आये थोड़ी ढील जो छोड़ी.. किया गया था.

अफसोस…, दोस्ती की बखान करने वाले इस गाने के रिकॉर्डिंग के कुछ ही दिन बाद मुकेश जी का अमेरिका में निधन हो गया और इसके साथ ही रफी और मुकेश जी की जोड़ी हमेशा के लिए टूट गई।

पर इस गीत के जरिए मुकेश और रफी की दोस्ती की दास्तान हमेशा जिंदा रहेगी।

#भुलेबिसरेनगमे

सुरैया

सुरैया का जन्म 15 जून, 1929 को गुजरांवाला, पंजाब में हुआ था । वे अपने माता पिता की इकलौती संतान थीं।उनका पूरा नाम सुरैया जमाल शेख़ था। सुरैया नाज़ों से पली सुरैया ने हालांकि संगीत की शिक्षा नहीं ली थी लेकिन आगे चलकर उनकी पहचान एक बेहतरीन अदाकारा के साथ एक अच्छी गायिका के रूप में भी बनी। सुरैया ने अपने अभिनय और गायकी से हर कदम पर खुद को साबित किया है।

करियर

सुरैया के फ़िल्मी करियर की शुरुआत बड़े रोचक तरीक़े के साथ हुई। मशहूर खलनायक जहूर जी सुरैया के चाचा थे और उनकी वजह से 1937 में उन्हें फ़िल्म ‘उसने क्या सोचा’ में पहली बार बाल कलाकार के रूप में अभिनय करने की मौका मिला। 1941 में स्कूल की छुट्टियों के दौरान वे मोहन स्टूडियो में फ़िल्म ‘ताजमहल’ की शूटिंग देखने गईं तो निर्देशक नानूभाई वकील की नज़र उन पर पड़ी और उन्होंने सुरैया को एक ही नज़र में मुमताज़ महल के बचपन के रोल के लिए चुन लिया। इसी तरह संगीतकार नौशाद ने भी जब पहली बार ऑल इंडिया रेडियो पर सुरैया की आवाज़ सुनी और उन्हें फ़िल्म ‘शारदा’ में गवाया। 1947 में भारत की आज़ादी के बाद नूरजहाँ और खुर्शीद बानो ने पाकिस्तान की नागरिकता ले ली, लेकिन सुरैया यहीं रहीं। 

एक वक़्त था, जब रोमांटिक हीरो देव आनंद सुरैया के दीवाने हुआ करते थे। लेकिन आखिर में भी यह जोड़ी वास्तविक जीवन में जोड़ी नहीं पाई। क्योंकि सुरैया की दादी देव साहब पसंद नहीं करती थी। लेकिन सुरैया ने भी अपने जीवन में देव साहब की जगह किसी और को नहीं आने दिया। ताउम्र उन्होंने शादी नहीं की और मुंबई के मरीनलाइन में स्थित अपने फ्लैट में अकेले ही ज़िंदगी व्यतीत करती रही। देव आनंद के साथ उनकी फ़िल्में ‘जीत’ (1949) और ‘दो सितारे’ (1951) काफी प्र्सिध रही । ये फ़िल्में इसलिए भी यादों में ताजा रहीं क्योंकि फ़िल्म ‘जीत’ के सेट पर ही देव आनंद ने सुरैया से अपने प्यार का इजहार किया था, और ‘दो सितारे’उन दोनों की आख़िरी फ़िल्म थी। खुद देव आनंद ने अपनी आत्मकथा ‘रोमांसिंग विद लाइफ’ में सुरैया के साथ अपने रिश्ते की बात कबूली है। वह लिखते हैं कि सुरैया की आंखें बहुत ख़ूबसूरत थीं। वे इसके साथ ही एक बड़ी गायिका भी थीं। हां, मैंने उनसे प्यार किया था। इसे मैं अपने जीवन का पहला मासूम प्यार कहना चाहूंगा।

 फ़िल्में

 1961 में ‘शमा’

 1954 में ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’

1951 में ‘दो सितारे’

1950 में ‘खिलाड़ी’

1951 में ‘सनम’

1950 में ‘कमल के फूल’

1940 में ‘शायर’

1949 में ‘जीत’

1948  में ‘विद्या’

1946 में ‘अनमोल घड़ी’

1943 में ‘हमारी बात’

गायन कला

अभिनय के अतिरिक्त सुरैया ने कई यादगार गीत भी गाए, जो अब भी काफ़ी लोकप्रिय है। इन गीतों में, सोचा था क्या मैं दिल में दर्द बसा लाई, तेरे नैनों ने चोरी किया, ओ दूर जाने वाले, वो पास रहे या दूर रहे, तू मेरा चाँद मैं तेरी चाँदनी, मुरली वाले मुरली बजा आदि शामिल हैं।

1948 से 1951 तक केवल तीन साल के दौरान सुरैया ही ऐसी महिला कलाकार थीं, जिन्हें बॉलीवुड में सर्वाधिक पारिश्रमिक दिया जाता था।
हिन्दी फ़िल्मों में 40 से 50 का दशक सुरैया के नाम कहा जा सकता है। उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि उनकी एक झलक पाने के लिए उनके प्रशंसक मुंबई में उनके घर के सामने घंटों खड़े रहते थे और यातायात जाम हो जाता था।

‘जीत’ फ़िल्म के सेट पर देव आनंद ने सुरैया से अपने प्यार का इजहार किया और सुरैया को तीन हज़ार रुपयों की हीरे की अंगूठी दी।

हिंदी फ़िल्मों में अपार लोकप्रियता हासिल करने वाली सुरैया उस पीढ़ी की आख़िरी कड़ी में से एक थीं जिन्हें अभिनय के साथ ही पार्श्व गायन में भी निपुणता हासिल की थी और इस वजह से उन्हें अपनी समकालीन अभिनेत्रियों से बढ़त मिली।

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी सुरैया की महानता के बारे में कहा था कि उन्होंने ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ की शायरी को आवाज़ देकर उनकी आत्मा को अमर बना दिया।

तलत किशोर

कहा जाता है कि पचास के दशक में जब भी संगीत की कोई महफिल होती थी और जिसमें संगीत की दुनिया के दिग्गज जैसे मोहम्मद रफी, मुकेश और किशोर कुमार मौजूद रहते थे, सबसे आखिर में तलत महमूद को गाने के लिए बुलाया जाता था। एक बार किशोर कुमार ने तलत महमूद के पास जाकर कहा था, 'मैं समझता हूं मुझे गाना छोड़ देना चाहिए। उर्दू जुबान पर जो आपकी पकड़ है, उसका मुकाबला, मैं भला कैसे कर पाऊंगा?'

एक इंटरव्यू में तलत महमूद की बेटी सबीना तलत महमूद ने बताया था, 'एक बार मैं शणमुखानंद हॉल में किशोर कुमार के एक कंसर्ट में जाना चाहती थी। जब मैंने ये बात अपने पिता को बताई तो न सिर्फ उन्होंने उस कंसर्ट का टिकट खरीदा, बल्कि मेरे साथ किशोर कुमार को सुनने खुद शणमुखानंद हॉल गए। बीच कंसर्ट में किसी ने उन्हें पहचान लिया और किशोर कुमार तक ये खबर पहुंच गई कि तलत महमूद अपनी बेटी के साथ हॉल में मौजूद हैं। किशोर ने फौरन मंच से घोषणा की कि हमारे बीच तलत साहब बैठे हुए हैं। उन्होंने उन्हें मंच पर बुलवाया और कहा कि 'तलत साहब आपकी जगह वहां नहीं, यहां है। आप मेरे साथ बैठिए।'

तलत महमूद की मन्ना डे से बहुत नजदीकी दोस्ती थी। मन्ना डे अपनी आत्मकथा 'मेमोरीज कम अलाइव' में लिखते हैं, 'एक बार मदन मोहन ने बंबई आई मलिका-ए-गजल बेगम अख़्तर के सम्मान में रात्रि भोज दिया जिसमें बंबई की हर बड़ी संगीत हस्ती को बुलाया गया। जैसी कि उम्मीद थी भोज से पहले संगीत की एक महफिल हुई और सबसे पहले तलत महमूद से माइक के सामने आने के लिए कहा गया। जैसे ही उनकी पहली गजल खत्म हुई, इतनी तालियां बजीं कि मेरे और मोहम्मद रफी के बीचोबीच बैठे हुए किशोर कुमार ने हम दोनों से फुसफुसा कर कहा, चलिए हम दोनों चुपके से भाग चलें। तलत के फैलाए जादू के बाद अब हम लोगों को और कौन सुनेगा?'

(तलत महमूद के साथ मोहम्मद रफी, किशोर कुमार, मुकेश सहित अन्य)