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Thursday, November 11, 2021

डाकखाना

*डाकखाना*
( एक हृदयस्पर्शी माध्यम )
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*डाकखाना* : यह केवल एक शब्द नहीं, एक पूरी संस्कृति है।
संचार की सबसे प्रारंभिक अवस्था से मनुष्य का साथ देने वाली चिट्ठी; संस्कृति में इतनी रची-बसी रही कि, उस पर गीत लिखे गये। चिट्ठी, खत, पाती, नामा, लिफाफा, मजमून, नामाबर, डाकिया, तार, पोस्टकार्ड, डाकबाबू, लैटर बॉक्स, डाकटिकट और न जाने कितने ही शब्दों से सुसज्जित यह डाक-व्यवस्था शायरी और कविताओं के साथ-साथ कहानी और उपन्यासों का भी महत्वपूर्ण अंग रही है।

*पीली चिट्ठी* मांगलिक अवसर का प्रतीक होती थी और *कोना फटा हुआ पोस्टकार्ड* अशुभ की सूचना लेकर आता था। चिट्ठी में लिखा गया एक-एक शब्द महत्वपूर्ण होता था। व्यक्तिगत चिट्ठियों में हाशिये पर की गई चित्रकारी देखकर पानेवाले को, लिखनेवाले की मनोदशा का दर्शन हो जाता था।

चिट्ठी के प्रारम्भ में *आपका पत्र मिला, अत्रं कुशलं तत्रप्यस्तु, हम सब यहाँ कुशलतापूर्वक हैं, आशा है आप सब भी कुशल होंगे* जैसे वाक्यांश औपचारिक होने के बावजूद रसपूर्ण लगते थे। इसी प्रकार *बड़ों को चरण स्पर्श और छोटों को ढेर सारा प्यार* जैसा वाक्य चिट्ठी से पूरे परिवार को जोड़ देता था।

लैटर बॉक्स के नीचे सुरंग की कल्पना और रात में चिट्ठी पहुँचाने वाली परियों की कल्पना करने वाला बचपन भी डाक-संस्कृति के साथ ही कहीं गुम हो गया। डाकिये की प्रतीक्षा करने वाली दोपहरी भी अब समय के चक्र से विदा हो गई है।

साथ ही नदारद हो गये हैं वे गीत, जो डाक संस्कृति के इर्द-गिर्द रचे जाते थे। *मास्टर जी की आई चिट्ठी, हमने सनम को खत लिखा, जाते हो परदेस पिया-जाते ही खत लिखना, कबूतर जा-जा, चिट्ठी आई है, चिट्ठी न कोई संदेश, खत लिख दे साँवरिया के नाम बाबू, फूल तुम्हें भेजा है खत में, डाकिया डाक लाया, डाक बाबू आया, संदेसे आते हैं, लिखे जो खत तुझे, फूलों के रंग से दिल की कलम से तुझको लिखी रोज़ पाती, सुन ले बाबू ये पैगाम, मेरी चिट्ठी तेरे नाम, तेरे खुशबू में बसे खत मैं जलाता कैसे और मैंने खत महबूब के नाम लिखा* जैसे दर्जनों गीत हिंदी सिनेमा की तवारीख में हीरों की तरह जड़े हुए हैं।

कवि-सम्मेलनों में भी चिट्ठी का खूब चलन रहा। मुझे अच्छी तरह याद है। हापुड़ के एक कवि-सम्मेलन में *श्वेतकेशा ज्ञानवती सक्सेना जी* ने एक गीत पढ़ा- *ऐसे में क्या चिट्ठी लिखूँ, जब कोना फटने के दिन हैं!* गीत उनकी वय पर इतना एकरूप प्रतीत हुआ कि उसकी संवेदना ने भीतर तक सिहरन उत्पन्न कर दी थी। *किशन सरोज जी* का गीत *कर दिये लो आज गंगा में प्रवाहित सब तुम्हारे पत्र, सारे चित्र तुम निश्चिंत रहना* श्रोताओं के मन और नयन दोनों को तर कर देता था। *माया गोविंद जी* का *डाकिये ने द्वार खटखटाया, अनबाँचा पत्र लौटाया* गीत लोकप्रियता के कीर्तिमान खड़े कर गया। आज भी *डॉ विष्णु सक्सेना* जब अपने मुक्तक की चौथी पंक्ति पढ़ते हुए कहते हैं कि, *उसने गुस्से में मेरा खत चबा लिया होगा* तो चिट्ठियों के सहारे जवान हुई हजारों प्रेम कहानियाँ जीवंत हो उठती हैं।

उर्दू शायरी भी इस विषय से भरी पड़ी है। *नामाबर तू ही बता तूने तो देखे होंगे/कैसे होते हैं खत, जिनका जवाब आता है* सरीखे सैकड़ों अशआर लोगों की जुबान पर चढ़े। 

*दाग देहलवी साहब* का मशहूर शेर *तुम्हारे खत में नया इक सलाम किसका था/मैं था रकीब तो आखिर वो नाम किसका था* किसी उपन्यास का कथानक बन जाने की क्षमता रखता है। *लिफाफा देख के मजमून भाँप लेते हैं* जैसे मिसरे मुहावरे बनकर मकबूल हो गये। हाल ही में *वाशु पाण्डेय* ने भी चिट्ठियों में बन्द मुहब्बत की इबारत को बयान करते हुए कहा कि, *कासिद चिट्ठी तैश में आकर लिखी थी/ ले जाओ, पर देना मत शहजादी को।* 

तकनीक बदली तो यह सब कुछ फना हो गया। *मोबाइल पर एसएमएस या कंप्यूटर पर ईमेल भेजने वाली पीढ़ी को चिट्ठियों की उस जादुई दुनिया का अनुमान तक नहीं है।* 
*उदयप्रताप सिंह जी* का ये शेर पढ़ते हुए आज भी मन तीन दशक पुरानी यादों में खो जाता है, *मोबाइलों के दौर के आशिक को क्या पता, रखते थे कैसे खत में कलेजा निकाल कर।*

*ब्याहता बिटिया की चिट्ठी मिलने पर माँ का खिला हुए चेहरा, होस्टल में रह रहे बेटे को चिट्ठी लिखती माँ की भीगी हुई पलकें, चिट्ठी में लिखे गये शब्दों के साथ अनलिखा दर्द पढ़ लेने का हुनर, हाशिये पर बनी चित्रकारी से मनोदशा पहचान लेने की कला और राखी के त्यौहार पर बहन की चिट्ठी खोलते भाइयों का कौतूहल अब देखने को नहीं मिलता।*

*पिता के पत्र पुत्री के नाम* जैसी किताबें चिट्ठियों की अहमियत का चित्र प्रस्तुत करती हैं।

लेकिन आज *खून से लिख रहा हूँ, स्याही न समझना* सरीखे मिसरे दूर खड़े होकर धूल खा रहे लैटर बॉक्स देखकर बिलख पड़ते होंगे। *निदा साहब* की दो पंक्तियाँ रह-रहकर उस किरदार की याद दिलाती हैं जिसे, हम डाकिया कहते थे - *सीधा-सादा डाकिया, जादू करे महान/एक ही थैले में भरे, आँसू और मुस्कान।*

*टीवी और रेडियो पर चिट्ठियाँ भेजने का रिवाज अब इतिहास बन चुका है। संपादक के नाम पत्र और प्रकाशनार्थ रचना भेजने की कवायद हम भूल चुके हैं। न ही संपादकों को अब 'खेद सहित' रचना लौटाने का स्वाद पता है।* 

*रमेश शर्मा जी* के गीत का मुखड़ा एक पूरी परम्परा को श्रद्धांजलि देता हुआ जान पड़ता है - *ओ दूरभाष की सुविधाओं, मुझे वो चिट्ठी लौटा दो!*

■■ रवि के गुरुबक्षाणी

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