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Monday, November 29, 2021

हुस्नलाल भगतराम

'चुप चुप खड़े हो ज़रूर कोई बात है, पहली मुलाक़ात है ये पहली मुलाक़ात है ...'
'सुनो सुनो ऐ दुनिया वालो बापू की ये अमर कहानी ...'

इन गीतों को संगीत देने वाले हिंदी सिनेमा की पहली संगीतकार जोड़ी 'हुस्नलाल भगतराम' जो आपस में सगे भाई थे। इस जोड़ी के 'भगतराम बातिश' को आज उनकी पुण्यतिथि (29 नवंबर 1973) पर याद करते हुए श्रद्धासुमन। और अगले ही दिन (30 नवंबर 1914) को इनकी जयंती भी है।

भगतराम हारमोनियम के उस्ताद थे, तो हुस्नलाल वॉयलिन के। हुस्नलाल ने पटियाला के उस्ताद बशीर खां  से वॉयलिन की शिक्षा ली थी। जबकि भगतराम स्वयं के अभ्यास से हारमोनियम में पारंगत हुए थे। दोनों के शास्त्रीय गुरु एक ही थे 'पंडित दिलिप चन्द्र बेदी'। इसके अलावा दोनों ने संगीत की कई विधाएं अपने ही बड़े चचेरे भाई 'पंडित अमरनाथ' से भी सीखीं। 1940 के दशक के जानेमाने संगीतकार थे। यह जोड़ीं बनने के पूर्व भगतराम 'भगतराम बातिश' के नाम से भी कई फिल्मों में संगीत दे चुके थे। सन 1939 में ‘बहादुर रमेश’, ‘भेदी कुमार’, ‘चश्मावाली’, ‘मिडनाईट  मेल’ तथा 1940 में ‘दीपक महल’, ‘हमारा देश’, ‘हातिमताई की बेटी’, ‘सन्देश’ और ‘तातार का चोर’ आदि फिल्मों में संगीत दिया परन्तु कुछ खास सफल नहीं हो पाये। हुस्नलाल एक उत्कृष्ट शास्त्रीय गायक भी थे ,परन्तु उन्होंने अपना अधिकांश समय संगीत को ही दिया। सिनेमा में बतौर संगीतकार पहचान इनकी जोड़ी को ही मिली।

'हुस्नलाल भगतराम' संगीतकार जोड़ी की शुरुआत फ़िल्म ‘चाँद' (1944) से हुई। जो बेग़म पारा एवं प्रेम अदीब की मनमोहक अदाकारी वाली प्रभात कंपनी की फ़िल्म थी। इस फ़िल्म में एक खास बात यह भी थी कि पहली बार हिंदी सिनेमा में पंजाबी शैली के संगीत ने दस्तक दी। इस फ़िल्म में मंजू का गाया एक गाना ‘दो दिलों को ये दुनिया मिलने नहीं देती ...' बेहद मशहूर हुआ था। सदाबहार अभिनेता देवानंद की पहली फ़िल्म ‘हम एक हैं' ( 1946) एवं बी. आर. चोपड़ा की प्रथम फ़िल्म ‘अफसाना’ (1950) के संगीतकार भी हुस्नलाल भगतराम ही थे।
 
कहा जाता है कि सुरैया को भी सुर की ऊंचाई देने में इस संगीतकार जोड़ी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वहीँ, लता मंगेशकर व्यतिगत तौर पर हुस्नलाल की करीबी थीं।  ऐसा माना जाता है कि नौशाद एवं अनिल विश्वास से अधिक 'हुस्नलाल भगतराम' ने लता की गायकी को निखारने में मदद की है। लता के भाई हृदयनाथ मंगेशकर ने बाल्यावस्था में हुस्नलाल से ही वायलिन बजाना सीखा  था। बाद में फ़िल्म जगत के प्रसिद्द संगीतकार बने शंकर (शंकर जयकिशन) और ख़य्याम ने भी आरंभिक दिनों में हुस्नलाल के साथ काम किया और इनसे संगीत की बेहतर समझ हासिल की। इतना नहीं नामचीन पार्श्व गायक महेंद्र कपूर और गायक/संगीतकार मोहिंदर जीत सिंह  के संगीत गुरुओं में एक हुस्नलाल भगतराम भी थे।

हुस्नलाल भगतराम की पहली फ़िल्म 'चाँद’ के निर्देशक डी. डी. कश्यप की फ़िल्म ‘नर्गिस’ (1946) जिसमें नायिका भी नर्गिस ही थीं। इस फ़िल्म में इस जोड़ी ने आमिर बाई कर्नाटकी से कई एकल गीत गवाये। इस फ़िल्म में आमिर बाई के गाये सभी गीत बेहद चर्चित हुए।

हुस्नलाल भगतराम ने तत्कालीन समय के लगभग सभी प्रसिद्ध शायर व गीतकारों के गीतों को अपनी संगीत से सराबोर किया। उस ज़माने में शायद ही कोई स्वराकार बचा हो जिसने उनके संगीत को स्वर न दिया हो।

इनमें संगीतकार के अलावा इनके अंदर एक शिक्षक के भी गुण थे। यही कारण है की वह खुल कर लोगों से बातें करते थे, अपनी गोपनीयता पर भी कोई पर्दा नहीं रखते थे। जिसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ा। इनकी बनाई हुई काफी धुनें सिनेमा में चोरी हुई। परन्तु यह जानते हुये भी उन्होंने कभी इस बात का विरोध नहीं किया, बल्कि यह कहते हुये और खुश होते थे कि आखिर  हमने भी तो श्रोताओं के लिए ही बनाया था। उन तक पहुँच गया, यही मेरी सार्थकता है।

शंकर जयकिशन , ख्याम ,ओ पी. नैयर जैसे संगीतकार के स्थापित होते ही इनका संगीत बिखरने लगा। फलस्वरूप उनके जीवन का अंतिम दिन बहुत ही खराब और दयनीय दशा में गुज़रा। समय ने यहाँ तक मजबूर किया कि हुस्नलाल को बम्बई छोड़ कर दिल्ली आना पड़ा, जहाँ उनके परिवार के कुछ लोग रहते थे। दिल्ली का वह इलाका पहाड़गंज का चुनामंडी मुहल्ला था। जहाँ उन्होंने एक संगीतालय की स्थापना कर संगीत की शिक्षा दे कर अपनी जीविका चलाई। वहीँ दूसरी ओर भगतराम को भी उन्हीं हालात से गुजरना पड़ रहा था, स्थिति  इतनी बुरी हो गई कि उन्हें लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के ओर्केस्ट्रा में मात्र एक हारमोनियम वादक बनने पर विवश होना पड़ा।

हुस्नलाल 28 दिसम्बर 1968 की सुबह में दिल्ली के ताल कटोरा बाग में टहलने निकले, उसी दरम्यान उन्हें दिल का दौरा पड़ा और चल बसे। और भगतराम का देहांत 29 नवंबर 1973 को हुआ। ज्ञातव्य हो की दूरदर्शन के मशहूर सितार वादक अशोक शर्मा भगतराम के ही सुपुत्र हैं।

उनकी संगीतबद्ध फिल्में निम्न हैं।इनमें से मिर्जा साहेबान में इनके चचेरे बड़े भाई 'पंडित अमरनाथ' भी थे।

चाँद (1944), एक हैं, नर्गिस (1946), हीरा, रोमियो एण्ड जूलियट, मिर्जा साहेबान, मोहन(1947) आज की रात, प्यार की जीत, लखपति (1948), अमर कहानी, बड़ी बहन, जलतरंग, बालम, सावरिया, नाच, बाजार, सावन भादो, हमारी मंजिल (1949), बिरहा की रात, छोटी बहु, प्यार की मंजिल, गौना, सरताज, सूरजमुखी, मीना बाज़ार, अपनी छाया, आधी रात (1950), शगन, सनम, स्टेज, अफसाना (1951), काफिला, राजा हरिश्चन्द्र (1952), आंसू, फरमाइश (1953), कंचन (1955), मिस्टर चक्रम, आन बान (1956), दुश्मन, जन्नत, कृष्ण सुदामा (1957), ट्रॉली ड्राइवर (1958), अप्सरा (1961), शहीद भगत सिंह (1963), टारजन एण्ड द सर्कस (1965), शेर अफगान (1966)

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