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Tuesday, November 30, 2021

सुधा मल्होत्रा कव्वाली गायिका

#सुधा_मल्होत्रा

गायिका

जन्म - 30 नवम्बर 1936

जन्म दिन अवसर बहोत सारी शुभकामनाए🎂🎂🎂🎂🍫🍫🍫🍫🍫💐💐💐💐💐

फिल्म-संगीत के अधिकांश श्रोताओं के लिए पार्श्व गायिका सुधा मल्होत्रा का नाम अनजाना जैसा लगता है, लेकिन फिल्म की कव्वालियों में जिनकी गहरी दिलचस्पी है, वे सुधा मल्होत्रा के निश्चित तौर पर प्रशंसक हैं। ग्रामोफोन कम्पनियों की ऑडियो-डीवीडीज में सुधा इन्हीं कव्वालियों के कारण आज भी मौजूद हैं। याद कीजिए फिल्म बरसात की रात की यह कव्वाली- निगाहें नाज के मारों का हाल क्या होगा। इसे मशहूर कव्वाल शंकर-शंभू के साथ सुधा ने गया था और साथ में आशा भोसले भी थी। इसी फिल्म में ना तो कारवां की तलाश है ना हमसफर की तलाश है, ये इश्क-इश्क है इश्क-इश्क में संगीतकार रोशन ने अपने आर्केस्ट्रा का इतना संजीदा उपयोग किया है कि दशकों बीत जाने के बाद भी ये कव्वालियाँ सुनी जाती हैं। यही वजह है कि गायिका सुधा मल्होत्रा आज भी मशहूर यादगार गायिका मे से एक है।

 30 नवम्बर 1936 को जन्मी सुधा मल्होत्रा छः साल की उम्र में पहली बार स्टेज पर प्रस्तुत हुई थीं। यह स्कूली दिनों की बात है। एक बार हिम्मत आ जाने के बाद वे लगातार मंच पर गाती रही। इस विषय में उनके माता-पिता ने उनकी भरपूर मदद की थी। बचपन में सुधा की गीत-संगीत में दिलचस्पी देख माता-पिता ने उसे प्रोत्साहित किया। वह घर पर नूरजहाँ तथा कानन बाला के गीतों को हूबहू गाकर सुना देती थीं। उन्हें शास्त्रीय गायन सिखाने के लिए एक ट्यूटर रखा गया। धीरे-धीरे वे ऑल इण्डिया रेडियो लाहौर पर अपनी गायकी का हुनर प्रस्तुत करने लगी। संगीतकार गुलाम हैदर ने सुधा की आवाज को पसंद किया था। वे उसे मौका देते, इसके पहले ही भारत-पाक का विभाजन हो गया। गुलाम हैदर पाकिस्तान चले गए। सुधा को आगे बढ़ाने के लिए संगीतकार अनिल बिस्वास आगे आए। उन्होंने फिल्म आरजू (1950) में उन्हें अवसर दिया। सुधा ने पहला गाना गाया- मिला गए नैन। इस समय उनकी उम्र सिर्फ बारह साल की थी।

कभी-कभी व्यक्ति के जीवन के आँगन में बारिश की तरह अवसरों की बरसात होती है। सुधा जी के साथ भी ऐसा हुआ। अनिल बिस्वास के बहनोई मशहूर बाँसुरी वादक पन्नालाल घोष ने सुधा को फिल्म आंदोलन में गाने का निमंत्रण दिया। उन्होंने वंदे मातरम गीत गाया। सहगायक थे मन्ना डे और पारुल घोष। पचास के दशक में सुधा ने लगातार दर्जनों फिल्मों में दर्जनों गाने गाए। उस दौर के तमाम संगीतकारों ने उनकी क्लासिक-बेस आवाज के कारण उन्हें मौके भी खूब दिए। सुधा की गायिकी की दो विशेषताओं का उल्लेख करना जरूरी है। पहली है उच्चारण की स्पष्टता। दूसरे शास्त्रीय प्रशिक्षण मिलने से आवाज में लोच और मधुरता का अनोखा मेल श्रोताओं को सुनने को मिला। इस दौर के चंद उम्दा गानों का जिक्र करना सुधा की गायिकी के साथ न्याय होगा। कैसे कहूँ मन की बात (धूल का फूल), तुम मुझे भूल भी जाओ, तो ये हक है तुमको (मुकेश के साथ फिल्म दीदी), ओ रूक जा रूक जा रूक जा (चंगेज खान), गम की बदल में चमकता (रफी के साथ कल हमारा है), सलाम-ए-हसरत कुबूल कर लो (बाबर) जैसे गाने मशहूर हुए।
सुधा मल्होत्रा ​​एक भारतीय पार्श्व गायिका हैं जो 1950 और 60 के दशक में लोकप्रिय थीं। 30 नवंबर 1936 को दिल्ली में जन्मी, वह लाहौर, भोपाल और फिरोजपुर में पली-बढ़ी और आगरा विश्वविद्यालय से संगीत में स्नातक हैं।

यह संगीत निर्देशक गुलाम हैदर थे जिन्होंने उन्हें फिल्म "आरज़ू" (1950) में एक बाल कलाकार के रूप में खोजा और प्रचारित किया, जहाँ उन्होंने "मिला गए नैन" गाया। उन्होंने "मिर्जा गालिब" (1954), "नरसी भगत" (1957), "अब दिल्ली दूर नहीं" (1957), "गर्लफ्रेंड" (1960) और "बरसात की रात" (1960) जैसी फिल्मों में गाना गाया।

उनके कुछ लोकप्रिय गीत "तुम मेरी रखो लाज हरि" ("देख कबीरा रोया", 1957), "हम तुम्हारे हैं" ("चलती का नाम गाड़ी", 1958), "का से कहां मन की बात" ("धूल") हैं। का फूल", 1959) और "सलाम-ए-हसरत क़ुबूल कर लो" ("बाबर", 1960)। बॉलीवुड में उन्होंने जो आखिरी गाना गाया था, वह राज कपूर की फिल्म "प्रेम रोग" (1982) में "ये प्यार था या कुछ और था" था।

सुधा मल्होत्रा का फ़िल्मी कॅरियर

सुधा मल्होत्रा जब 11 वर्ष की थीं, तब वह एक स्टूडियो में गाना गा रही थीं और गाना था 1950 में रिलीज हुई फ़िल्म 'आरज़ू' के लिए, जिसके बोल थे 'मिला दे नैन'। जब रिकॉर्डिंग खत्म हुई तो संगीतकार अनिल बिस्वास ने ताली बजा कर इस नई आवाज़ का हौसला बढ़ाया। इस तरह फ़िल्म संगीत को मिलीं सुधा मल्होत्रा, जिन्होंने कम समय में ही फ़िल्म संगीत के इतिहास में अपना नाम सुरक्षित कर लिया। बचपन में सुधा को गाने का शौक था, उस समय उनका परिवार लाहौर में रह रहा था। वहां रेडक्रॉस का एक कार्यक्रम हुआ, जिसमें सुधा ने पहली बार लोगों के सामने गाना गाया तब उनकी उम्र थी 6 साल। उस समारोह में संगीतकार मास्टर गुलाम हैदर भी मौज़ूद थे उन्होंने इस आवाज़ को परख लिया। उनकी तारीफ ने नन्ही सुधा को आत्मविश्वास से भर दिया और जल्द ही वह 'ऑल इंडिया रेडियो लाहौर' में सफ़ल बाल कलाकार बन गईं।

●पहला गीत

Mila gaye nain // Arzoo (1950)

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बरसों बाद अचानक एक दिन किसी निजी समारोह में राजकपूर ने सुधा को ग़ज़ल गाते हुए सुना, फिर क्या था राजकपूर ने फ़ैसला कर लिया कि उनकी फ़िल्म 'प्रेम रोग' के लिए सुधा गीत गाएंगी। लंबे अर्से के बाद सुधा फिर स्टूडियो में पहुंचीं, लेकिन इस बार वह काफ़ी घबरायी हुई थीं। वह गीत 'ये प्यार था या कुछ और था' आज भी सुधा की आवाज़ की मधुरता और सुरीलेपन की याद दिलता है। सुधा ने फ़िल्मों के लिए यह आखिरी गीत गाया। क्योंकि तब तक समय बहुत आगे बढ़ चुका था मैदान की कमान युवाओं के हाथ में थीं। सुधा अब अपने परिवार में व्यस्त हैं। भजन गायकी में उनकी दिलचस्पी बनी हुई है। भले ही उन्होंने फ़िल्मों में गाना छोड़ दिया, लेकिन इस उम्र में भी उनका रियाज करना जारी है..

●आख़िरी गीत

Prem Rog // Sudha Malhotra

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