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Friday, November 19, 2021

रफी के बिना ये अधूरे

देव आनंद, दिलीप कुमार, राजेंद्र कुमार, शम्मी कपूर और धर्मेन्द्र बाँलीवुड के ऐसे पाँच सशक्त महारथी रहे है, जिनकी फिल्मो को अपार शोहरत हासिल हुई है, और यह तमाम नायक आज भी दर्शको के दिलो दिमाग में ताज़ा बने हुए है…दशको बाद भी… लेकिन जरा ठहरिये..क्या इन तमाम नायको को रफ़ी साहब नाम का पारस पत्थर नहीं मिलता तो क्या वे इतने लोकप्रिय हो पाते? इसका जवाब भी  पाठकोँ को ही देना है।

देव साहब जब जब अपनी रोमांटिक अदाओं के साथ नायिका वैजन्ती माला को पुकारते है, ‘दिल पुकारे आरे-आरे’ या फिर दूसरी नायिका वहीदा रहमान को नहायत दर्द भरे अंदाज में आश्वत करते हुए फरमाते है, ‘लाख मन ले दुनिया साथ ना ये छुटेगा’ या फिर गहराती शाम से घिरे, ठंडी हवाओं की मस्ती में उनींदे से किसी हिल स्टेशन में एक प्रेमी की अपनी प्रेमिका नूतन से मिलने की ललक में जब प्यार भरी तड़प एक नगमे के रुप मेँ उभर कर आती है, ‘तू कहाँ यह बता, इस नशीली रात में… माने या ना माने मेरा दिल दीवाना’ तब दर्शक (श्रोता) भी दम भर को सांस थाम लेते हैँ और एक ‘सुदर्शन युवा’ के प्यार की गहराइयों में उतरते चले जाते है…गहराईयों में कहीं और नीचे और इस प्यार के फलसफे के पीछे जो आवाज है, वो सब उसी का ही तो कमाल है।

नवकेतन बैनर अपने समकालीन बैनर आर. के. जैसा ही सुरीले, हित संगीत का सर्जक रहा है। देव आनंद ने अपनी शुरुआत फिल्म ‘जिद्दी’ के किशोर कुमार जी के स्वर वाले गीत ‘मरने की दुआएं क्यों मांगू, जीने की तम्मना कौन करे’ (संगीतकार- खेमचंद्र प्रकाश, 1948) से जरुर की थी। लेकिन पचास के दशक के मध्य में जब देव अपनी शैली और अपने मनमोहक लुक के कारण तेज़ी से उभरते चले जा रहे थे। तब उन्होंने रफ़ी साहब के गले को ही अपने होठों के लिए ज्यादा मुनासिब समझा…और यह सब मुमकिन और सरल बनाया संगीतकार एस. डी. बर्मन ने….और बर्मनदा और देव साहब दोनों दिल के युवा थे और देव साहब तो शारीरिक रूप से भी हैण्डसम और युवा थे ही। त्रिपुरा के सही परिवार से ताल्लुक रखने वाले प्राय: पान चवाने वाले सचिन देव बर्मन शीघ्र ही नवकेतन के अभिन्न अंग बन गए थे, ठीक वैसे ही शंकर जयकिशन आर. के. के बन गए थे। संगीत रसियों ने इन दोनों कैंपो के संगीत का जी भर के रसास्वादन करना प्रारंभ कर दिया..वर्षों तक…सदियों तक…

दोनों कैंप की एक साझा विशेषता यह थी कि संगीत में दोनों ही प्रकृति, हरियाली, सुन्दर वादियों, पर्वतों से पूरी तरह सम्मोहित थे। ये चीजें उनके गीत संगीत में झलकता भी था। रफ़ी साहब और देव साहब का साथ पाचास के दशक के प्रारंभ में शुरू हुआ जब देव-सुरैया की मोहम्म्बत भी चरम पर थी… यह दौर था देव-सुरैया की फिल्म ‘सनम’ (1954) के दिनों का…. इस जोड़ी के गीतों के आल टाइम हिट गीतों की झड़ियाँ लगा दी, ‘सी. आई. डी’, ‘सोलवा साल’, ‘काला बाजार’, ‘काला पानी’, ‘हम दोनों’, ‘शराबी’, ‘असली नकली’, ‘तेरे घर के सामने’, ‘जब प्यार किसी से होता है’, ‘गाइड, तीन देवियां, कहीँ और चल, ज्वेल थीफ, दुनिया, प्यार मोहब्बत, महल, बंबई का बाबू, ’ इत्यादि से लेकर ‘गेम्लर’ (1970) तक… खुद देव साहब ने यह स्वीकार किया था कि रफ़ी साहब ने जो गीत गाये वो किसी और के बूते की बात नहीं,

 हालाकिं वे यह भी स्वीकार करते है कि उनके व्यक्तित्व से किशोर कुमार की आवाज ज्यादा सूट करती थी इसलिए उनसे ज्यादा गीत गवाए।
लेकिन यदि आप रोमांटिक देव की छवि निहारेंगे तो पाएंगे कि यह रफ़ी साहब के कारण ही मुमकिन हुई…फली फूली। रोमांस की हद तो देखिये, ‘खोया-खोया चाँद, खुला आसमान’, ‘दिल का भंवर करे पुकार’, ‘तू कहाँ ये बता इस नशीली रात में, ‘मेरा मैन तेरा प्यासा’, ‘तेरे मेरे सपने अब एक रंग है’ आदि अब ज़रा शोकांकतिका, दख, अवसाद की पीडा भी देखिये रफ़ी साहब के स्वर में , देव के चेहरे पर.. ‘दिन ढल जाये हाय रात ना जाये’, कहीँ बेखयाल होकर  ‘कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया।’

देव साहब के सैकड़ो गीतों के बीच जब उनका कोई पसंदीदा गीत चुन ने को कहा गया तब उन्होंने खुद स्वीकारते हुए कहा था कि जिंदगी के फलसफे को बयां करने वाला गीत “मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया”….मेरे आल टाइम फेबरेट है। रफ़ी साहब ने निहायत ख़ुशी भरे अंदाज़ में जिंदगी की फिलोसोफी बयां कर दी है… ठीक वैसे ही ‘अभी ना जाओ छोड के…रफ़ी साहब ने कितनी खूबसूरती और सरलता से रोमांस को प्रकट कर दिया।

रफी- देव जोड़ी के सुरीले मेल को फिल्म "असली-नकली" के इस गीत से अच्छी तरह समझा जा सकता है, जैसे वे ही कह रहे हैँ  

‘प्यार का साज़ भी है,
दिल की आवाज भी है
मेरे गीतों से तुम्ही तुम हो
मुझे ये नाज़ भी है….

आवाज और सुर को भली भांति मिश्रण कर गीत की शक्ल में पेश करने में रफ़ी साहब को महारथ हासिल थी…और यह महारथ उसे गाते वक़्त अदा कर में घुल मिल जाती थी…और शायद वे इसी वजह से वे एक यूनिवर्सल स्टार बन सके…। 

रफ़ी साहब देव साहब के व्यक्तित्व, मैनेरिज़म स्टाइल की भली भांति जानते थे, इसलिए वो इसी किस्म की आवाज भी वैसे ही पेश कर देते थे। देव साहब की विशेष स्टाइल है तो आवाज भी वैसी ही पेश कर देते थे। परदे पर ऐसे लगता था कि देव साहब खुद ही गीत गा रहे हो। जब किसी फिल्म में नायक (देव आनंद), नायिका (मधुवाला) से रूठ गए हैँ और नायिका बड़ी ही शिद्दत की साथ प्रेमी को मानाने और माफ़ी वाले अंदाज़ में रुठते हुए गाता है ‘अच्छा जी मैँ हारी चलो मान जाओ न.’ और प्रत्युत्तर मेँ नायक बडे ही दिलकश अंदाज मेँ रुठते हुए गाता है "देखी सब की यारी मेरा दिल जलाओ ना"

इस पुरे गीत को आप ध्यान से देखेंगे तो पता चल जायेगा कि रफ़ी साहब ने क्या खूब ‘देव आनंद’ बनकर गाया है।

 (धीरेन्द्र जैन द्वारा कलमबद्द "वो जब याद आए" से आभार सहित)

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